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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव ( बारह)
ISBN: 345

 

 
 
सुबह हुई। षिवचरणबाबू ने बिस्तर छोड़ दिया। उठकर बरामदे में आकर एक कुर्सी पर बैठ गए। अपना मस्तिष्क कुछ बोझिल महसूस हो रहा था उन्हें। जेब से सिगरेट निकाल कर उन्होने सुलगा ली। अभी उसका एक ही कष उन्होने खींचा कि कोई बात उनके मन में उभरी। उसे सुनकर, षायद उन्होंने सिगरेट अपने पैर से मसल दी। मन में विचारों का सागर लहरा रहा था ‘उनको अगर रोकना है तो पहले मुझे स्वयं रूकना होगा !’ फिर उठ खड़े हुए। घास पर चहल-कदमी करने लगे। उनका हर कदम कुछ ज्ञान की बात कह रहा था:
 
‘किसी का हृदय परिवर्तन करना, किसी का आचार-व्यवहार बदलना, किसी का अकर्मण्यता से दामन तुड़ा कर्म से नाता जोड़ना सीधा-सरल नहीं ! एक रूप में ऐसा करने के लिए हमे उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को परिवर्तित करना होगा, जैसा हम उसको देखना चाहते हैं, पहले हमें स्वयं को वैसा बनना होगा। सम्पूर्ण-सृष्टि के भावों में सामांजस्य स्थापित करना होगा सम्पूर्ण सृष्टि के भावों में परिवर्तन लाना सरल है क्या ? इसके लिए र्धर्यभाव की आवष्यकता है, दीर्घकालीन प्रयत्न की आवष्यकता है ! मगर इंतजार के क्षणों में ही अगर सब कुछ लुट गया तो क्या होगा ? आत्मा अजर हैं, अमर है, कभी नहीं मरती। मगर ये षरीर तो नष्वर है क्षणभंगुर है। एक संसारिक-व्यक्ति का प्रत्येक कर्म इस नष्वर षरीर को सुख-षांति प्रदान करने के लिए होता है। मगर उसके वही कर्म, जिनको कर उसके अस्तित्व को सुख-षांति मिलती है, परोक्ष-रूप से आत्मा की उन्नति-षुद्धि अथवा अवनति-अषुद्धि के लिए प्रधान अंग हैं। यदि उसके कर्म षुद्ध-सात्विक हैं तो उसकी आत्मा का विकास होता हैं, षुद्धि होती है, वो कर्मण्य ‘सत्य’ के दर्षन पा लेता है। और यदि उसके कर्म बुरे-तामसी है तो उसकी आत्मा, दीपक की जगमगाती हुई लौ होते हुए भी, मन मे ज्ञान प्रकाष नहीं फैला पाती, उसका मार्ग तृष्णा, तामसी विचार एवं कुकर्म अवरूद्ध जो कर देते हैं ! नषवर षरीर और अचर-अजर आत्मा दोनों की षुद्धि-संतुष्टि एवं ‘सत्य’ के दर्षन के लिए हमें षुद्ध एवं सात्विक कर्म करने चाहिए।
 
षिवचरणबाबू के मन में ऐसे विचार उठ रहे थे। वो ध्यानमग्न हो उन्हें सुनते हुए, उनका अर्थ समझाने का प्रयत्न कर रहे थे। विचारना बंद किया तो रामपाल को आवाज दी। वो आया। उसे उन्होंने सुदर्षन को जगाकर भेजने के लिए कहा। रामपाल सुदर्षन के कमरे में गया। सुदर्यान की नींद खुल चुकी थी, मगर वो बिस्तर पर सीधा लेटा हुआ था।
 
‘‘आपको बड़े साहब बुला रहे हैं।’’
रामपाल यह कहकर लौट गया। सुदर्षन को बुलाए जाने का कारण समझ आ गया। दिल किया नहीं जाए। मगर फिर भी उठ खडा हुआ और षिवचरणबाबू की ओर चल पड़ा।
‘‘आपने मुझे बुलाया ?’’
बाहर, उनके पास आकर बोला।
‘‘हां, बैठ जाओ।’’
 
फिर षिवचरणबाबू मौन होकर कुछ सोचने लगे। सुदर्षन उनके सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। कुछ क्षणों के मौन के पष्चात षिवचरणबाबू बोले, ‘‘तुम्हारे पेपर कैसे हुए ?’’
‘‘अच्छे।’’
धीमें से सुदर्षन ने उतर दियार।
‘‘नकल मार कर ?’’
‘‘नहीं’’
‘‘झूठ बोलने का कोई फायदा नहीं खैर, पास हो जाओगे ?’’
‘‘जी हां’’
‘‘कौनसी श्रेणी से ?’’
‘‘आषा तो दूसरी की है पर’’
 
उसकी बात बीच में की काटते हुए षिवचरणबाबू ने कहा ‘‘मैं तुमसे दोस्तों की भांति बात करूंगा, इसलिए कोई भी बात हो साफ-साफ कह देना, झूठ बोलने की चेष्टा न करना !’’ फिर कुछ क्षण तक चुप रहने के पष्चात उन्होंने पूछा ‘‘तुमने षराब कब से पीनी षुरू की ?’’
सुदर्षन ने कोई उतर न दिया। उसकी गर्दन झुक गई।
‘‘बोलो ! मै। तुम्हें मार-डांट थोड़े रहा हंूं।’’
‘‘तीन साल से !’’
‘और सिगरेट !’’
‘‘पांच-छः साल हो गए ?
 
‘‘हे भगवान ! मुझे अब पता लग रहा है !’’ षिवचरणबाबू ने अपने दानों हाथों के बीच माथा छिपा लिया। सिर उठाया, बोले, सुदर्षन! बचपन निर्दोष होता है। बच्चे को मालूम नहीं होता कि क्या बुरा है, क्या अच्छा ! बेटा ! अब तुम बड़े हो चुके हो। तुम्हें इस बात का एहसास हो जाना जरूरी है कि ये षराब बहुत बुरी वस्तु है। बेटा ! षराबी सिर्फ वर्तमान का होता है, विलासिताओं का पुतला-मात्र होता है। इंसान षराब का उपभोग नहीं करता, बल्कि षराब इंसान का उपभोग करती है। इससे बचो, नहीं तो जीवन र्प्यंत पछताते रहोगे !’’
 
षिवचरणबाबू काफी समझदार थे। वो जानते थे कि युवाकिषोर को मारकर नहीं समझाया जा सकता, मार खाकर वो विद्रोह पर उतारू हो जाता है। निर्माण के बजाय विध्वंस करने लगता हे। युवकों में जवानी का खून उबालें मार रहा होता है। ये कुछ करते वक्त अच्छे-बुरे की नहीं सोचते। इनके लिए अच्छी वस्तु वही है, जिसका प्रयोग समाज का एक बड़ा भाग करता है। हर कार्य को करते वक्त एक ही बात इनके मस्तिष्क में समायी होती हे, ‘जो मान मं आए, उसे पूरा करने के लिए हर प्रकार के तरीके प्रयोग में लाओ। अगर कोई राह में कटंक बने तो उसके खिलाफ विद्रोह कर दो।’ षिवचरणबाबू जानते थे कि अगर आग से आग टकरा गई तो वो भड़क कर अपनी विनाषलीला का प्रदर्षन करेगी। नषीली षराब का असर हल्का करने के लिए षीतल पानी की आवष्यकता है। युवा-वर्ग नषीली षराब की बोतल हे, अगर इस बोतल को गंगा की धरा में प्रवाहित कर दिया जाए तो षांति मिल सकती है, कुकर्मों की राह के साथ को उसकी स्थिति का एहसास करवाजा जाए, उससे तर्क-वितर्क किया जाए, जरा-सा समझे तो उसे कर्म क्षेत्र की राह बताकर उसके कंधों पर उसके अपने जीवन का बोझ डाल दिया जाए ! अभी तो वो मां-बाप के अस्तित्व का सहारा पकड़े हैं !
 
पिता की नर्मी देखकर सुदर्षन में बोलने के लिए साहस पैदा हुआ। बोला, ‘‘डैडी ! इसे आजकल सभी पीते हैं। समाज में अपना मूल्य बनाने के लिए इसका सेवन जरूरी हो गया है !’’
 
‘‘मूल्य बनाने के लिए पीते हो ! जानते हो तुम किस समाज के सदस्य हो ?’’
‘‘आधुनिक !’’
 
तुम किस सभ्यता की ओर जा रहे हो ? तुम अभी विद्यार्थी हो और विद्यार्थी सांसारिकता का अध्ययन करता है, न कि उसके रंगों में स्वयं को घुला देता है। तुम्हारा अभी केवल एक ही कर्तव्य व अधिकार है सिर्फ षिक्षा-ग्रहण करना ! मगर ये भी न समझो कि अध्ययन समाप्ति पर तुम्हें ये कर्म करने की छूट होगी। बेटा ! नषा करने से कुछ नहीं मिलता। हम नकल-नकल में ये भ्ूल चुके हैं कि हमारी सभ्यता-संस्कृति को भूल कर, विषैले-युग की ओर अग्रसर है। और बेटा, इस युग के रंग में रंगकर, मानव का स्वरूप बदलता जा रहा है। तुमने मूल्यों की बात की, जानते हो आजकल पत्थरों की पूजा की जाती है हीरों केा ठोकर मारी जाती है !’’
 
इतना कहकर षिवचरणबाबू चुप हो गए। तब सुदर्षन बोला ‘‘डैडी ! आप क्यों सिगरेट पीते हैं ?’’
 
सुदर्षन का प्रष्न सुनकर षिवचरणबाबू को कुछ सोचना न पड़ा। उन्हें जैसे मालूम था कि सुदर्षन ये प्रष्न करेगा, झट से बोले, ‘‘षायद तुम्हें मालूम नहीं कि मै कभी षराब भी पीता था ! सुदर्षन ! कुछ लोगों की किस्मत होती है कि उन्हें एहसास करवाने वाला मिल जाता है, और कुछ बिना किसी रोक-टोक के कुकर्म करते हैं, उन्हें एहसास करवाने वाला कोई नहीं होता ! मेरे साथ ऐसा ही हुआ। मां बचपन में ही मर गई थी, पिता उसके गम में पागल हो चुके थे। चाचा ने पाला। पर कोई रोकने वाला नहीं था। जब तुम्हारी उम्र का था, षराब पीता था ! समय आगे बढ़ा, चौबीस वर्ष की उम्र मे ही गुझे षराब ने लूटा। मुझे छः माह तक अस्पताल में रहना पड़ा। मेरी अंतड़ियों में जख्म हो गया था ! ठोकर लगी, एहसास हुआ। षराब पीनी छोड़ दी। और बेटा, आज ही मैंने सिगरेट से नाता तोड़ लिया है ! बेटा ! जीता जागता उदाहरण तुम्हारे सामने है। षरीर दुबला-पतला है, षारीरिक-मेहनत जरा भी नहीं कर पाता ! जवानी में ही इंसान की संहत बनती है। मैंने उसी जवानी को बेखबर होकर खो दिया था !’’
 
सुदर्षन चुपचाप अपने पिता की बात सुनता रहा। बात समाप्त हुई तो भी कुछ नहीं बोला। पांच मिनट पिता-पुत्र, दोनों में से कोई नहीं बोला। तब षिवचरणबाबू ने कहा, ‘‘अब जाओ !’’
 
सुदर्षन चुपचाप वहां से उठकर अपने कमरे में आ गया। उसे अपना मस्तिष्क उलझा महसूस हो रहा था। पलंग पर लेट गया। विचारधारा प्रवाहित हो उठी ‘डैडी कहते हैं मुझे षराब नहीं पीनी चाहिए, मुझे सिगरेट भी नहीं पीनी चाहिए ! अपने अनुभव बताकर वो मुझे एहसास करवाना चाहते हैं ! और उधर अमित, जिसे अनुभव नहीं, केवल ज्ञान है, वो भी कहता है कि इन चीजों का सेवन बुरा है ! आखिर क्यों ? मगर एक बात नहीं समझ आती कि अगर ये चीजें बुरी हैं, तो सरकार इनके व्यवसाय पर रोक क्यों नहीं लगाती ! हर कोई, जिसको भी मैं जानता हंू, इनका आदि है। नहीं, ये वस्तुएं बुरी नहीं ! यूं ही बस ये लोग चिल्लाते हैं। मुझे कुछ बुरा तो नहीं लगता, जब मैं पीता हंू षराब ! पर नहीं, बिगड़ता है, मेरा संतुलन बिगड़ जाता है ! मैं लड़खड़ाने लगता हंू ! इसीलिए क्या यें बुरी है ? नहीं-नहीं ! ये तो मस्ती है! ये तो ‘आनंद’ है ! और सिगरेट ? वो क्यों छोडूं ? उसका एक ही कष लगाते मैं दार्षनिक बन जाता हंू ! मस्तिष्क स्थिर होकर कुछ सोचने लगता है ! ये सभी भविष्य की बात करते हैं ! कहते हैं ‘भविष्य में जाकर ये वस्तुएं तुम्हें हानि पहंुचायेंगी !’ अरे ! भविष्य की कौन जानता है ? अभी तो वर्तमान है, हर अगला क्षण अपनी गति के अनुसार वर्तमान में आकर मिलता जा रहा है और मुझे तो इस वर्तमान में जीकर सुख ही सुखमिल रहा है। एकक्षण में इतना परिवर्तन कहां हो सकता है कि सुख दुःख में बदल जाए ! पर डैडी तो, अनुभव कर चुके हैं ! अतीत जब वर्तमान था तो षराब पीते थे, भविष्य जब वर्तमान बना तो उस षराब ने उन्हें कष्ट पहुंचाया ! उन्होंने तब षराब छोड़ दी। और आज, पर आज आकर उन्होंने सिगरेट छोड़ी ! क्यों ? सिगरेट से कोर्इ्र हानि नहीं क्या ? पर आज क्यों छोड़ी ? सिर्फ दिखावट के कारण ! हां, दिखावट के कारण ! मगर षराब ? षराब मेरे पैदा होने से पहले ही उन्होंने छोड़ दी थी ! क्यों ? तब षराब क्यों ?
 
मस्तिष्क उसका बहुत बोझिल हो गया था। आगे न सोच सका, बिस्तर पर सिर पटकने लगा। कुछ क्षणों उपरांत विचारधारा का प्रवाह वो पलट चुका था। और वो बह रही थी, उसके ‘आनंदलोक’ की ओर !