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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (ग्यारह)
ISBN: 345
 
दोस्तों को मिलने के पष्चात करीब नौ बजे तक सुदर्षन घुमता रहा और फिर वापिस घर आ गया। कपड़े बदलकर जब वो खाने के कमरे में पहंुचा, तब साढे नौ बज चुके थे। वो खाना खाने लगा। उसके पिता षिवचरणबाबू अभी तक अपने कार्यालय से वापिस नहीं आए थे। वह प्रतिदिन करीब ग्यारह बजे लौटा करते थे। लक्ष्मीदेवी अपने पति के संग ही खाना खाती थी।
 
खाना समाप्त करके सुदर्षन बाहर आंगन में आकर टहलने लगा। सवा दस बजे के करीब अपने कमरे में आ गया और बिस्तर पर लेट कर एक उपन्यास पढ़ने लगा।
 
उपन्यास पढ़ते हुए अभी पन्द्रह मिनट ही बीते थे कि उसे अपना गला सूखता महसूस हुआ, प्यास लगी थी। पलंग से उठकर उसने जग से गिलास में पानी डालने की प्रतिक्रिया की ही कि उसको षराब की वो बोतलें स्मरण हो आई, जो वो गोवा से खरीद कर लाया धा। बक्से से उसने एक बोतल निकाल ली और पैग ढाल कर पीने लगा। बोतल को वह वापिस बक्से में रखना भूल गया। वह तिपाई पर पड़ी रह गई।
 
करीब साढ़े ग्यारह बज उसके कमरे का दरवाजा खुला। आनेवाले षिवचरणबाबू थे।
‘‘आ गाए, सुदर्षन ?’’ मुस्कुरा कर बोले।
‘‘जी डैडी !’’
 
साथ ही उठकर सुदर्षन ने उन्हें चरण-बंधना की। उसी क्षण षिवचरणबाबू की दृष्टि तिपाई पर पड़ी षराब की बोतल पर पड़ी। उन्हें घोर अचम्भा हुआ। आगे बढ़कर बोतल उठा ली। अविष्वसनीय भाव-युक्त षब्द निकला मुख से ‘‘षराब !’’
 
सुदर्षन अपनी भूल पर घबरा गया। षिवचरणबाबू की मुख-मुद्रा कठोर हो गई। आक्रोष-भरे स्वर से बोले ‘‘ये षराब कहां से आई ?
‘‘जी----वो------वो---!’’
‘‘वो, वो क्या ? बोलो, ये कौन लाया ?’’
चोरी पकड़ी जा चुकी थी। घबराहट पर नियन्त्रण कर बोला, ‘‘गोवा में सस्ती थी इसलिए खरीद ली !’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘सस्ती थी !’’
 
घबराहट में निकला मुख से। और केाई समय होता तो षायद षिवचरणबाबू की हंसी निकल आती। अगर आज मुस्कुराहट भी न उभरी।
‘‘कब से पीते हो ?’’
‘‘आज ही पी !’’
‘‘झूठ बोलते हो’’
अपनी घबराहट पर सुदर्षन को क्रोध आ गया। मुख से निकल गया, ‘‘अगर पीता हंू तो बुराई ही क्या है ?’’
‘‘तुम, तुम षराब पीते हो ! इसे अच्छी कहते हो !’’
षिवचरणबाबू के अचम्भे भरे षब्द थे। हाथ कांप उठे।
 
उसी क्षण बोतल नीचे गिर पड़ी। कमरे में खनखनाहट हुई। कांच के टुकड़े और षराब की तरलता फर्ष पर फैल गई और कमरे के वातावरण में तरलता की बू ! आवाज सुनकर लक्ष्मी देवी भागी-भागी आई। आते ही पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
तभी उनकी निगाह कांच के टुकड़ें पर गई। कमरे में फेली बू उनके नथुनों में घुसी। बोली ----
‘‘ये षराब कौन लाया ?’’
‘‘पूछो इससे !’’
क्रोध से षिवचरणबाबू का बदन कांप रहा था।
 
‘‘क्या ? सुदर्षन, तुम ! तुम षराब पीते हो ? तुम षराब पीते हो ! कमीने, घर की लाज मिटटी मे मिलाओगे क्या ? षर्म नहीं आती।’’
 
लक्ष्मीदेवी की वाणी आष्चर्य-युक्त-क्रोध लिए थी। आगे बढ़कर उन्होंने सुदर्षन के मुख पर एक थप्पड़ मारा।
 
लक्ष्मी !’’ षिवचरण बाबू ने आगे बढ़कर लक्ष्मीदेवी के हाथ को पकड़ लिया और बोले, गुस्से पर काबू पाओ ! मारने से कुछ नहीं होने का।’’
 
‘‘मार नहीं तो क्या इस नीच को दुलार दंू ? मैं इसे मार-मार कर खत्म कर दूंगी। खुली छूट दी इसका मतलब ये तो नहीं कि ये कुल की इज्जत को भी नीलाम कर दे। अभी उम्र क्या है और काम क्या करता है !’’
 
उसी क्षण बिखरे कांच का एक टुकड़ा उनके पैर में चुभ गया। दर्द-भरी एक चीख उनके मुख से निकली। फर्ष पर बिखरी षराब में पैर से निकलता खून घुलने लगा !
 
षुक्र है, ऐसा आंखो ने देख लिया ! नहीं तो विष्वास नहीं होता था ऐसा सुनकर कि, ‘‘खून और षराब में कोई अंतर नहीं रहा। बोतल में पड़ी षराब हलक से नीचे जाते ही खून बन जाती है आजकल !’ खून से इतना प्रेम नहीं करता अब मानव, जितना षराब की दो बूदों से करता है ! ऐसा क्यों ? ऐसा क्यों ? इसलिए कि दुनियां कहती है, ‘जाम पीकर हम सारे रिष्ते-नाते भूल जाते हैं। स्वयं हम क्या हैं, ‘वो’ हमारे क्या लगते हैं ? भेदभाव भूलकर हम सबसे सुख चाहते हैं ! ऐसी वस्तु तो अमृत है जो खून, खून का अंतर समाप्त कर देती है !’ ये दुनियां की भ्रष्टाचारी विचारधारा है, जिसने विष को अमृत और अमृत को विष की पदवी दे दी है ! इस सृष्टि के प्रत्येक जीव को, प्रत्येक अंष को उचिताधिकार दिलवा रही है आधुनिक सभ्यता !
 
मां का दर्द बच्चा सहन नहीं कर सकता। देखकर घबरा जाता है, आंखों से बरबस आंसू बह निकलते हैं। परतु सुदर्षन बुत बने खड़ा देख रहा था। तभी षिवचरणबाबू की आवाज ने उसे चौंकाया। वो कह रहे थे, ‘‘जाओ मेरे कमरे से ‘फर्स्ट-ऐड’ बक्स ले आओ !’’
 
सुदर्षन ने उनके आदेष का तत्काल ही पालन किया। कांच बाहर निकाल कर उन्होंने लक्ष्मीदेवी के पैर पर पटटी बांध दी और उन्हें सहारा देते हुए कमरे से निकल गये।
 
उसी समय रामपाल ने आकर कमरे को साफ कर दिया। उसके बाहर निकलते ही सुदर्षन ने षेष तीन बोतलों को अलमारी में छिपा दिया। और फिर पंलग पर लेट गया।