पथ पर चलते-चलते पथिक थक गए। विश्राम की इच्छा दिल में उनके उत्पन्न हुई। विश्राम-स्थल की खोज में दृष्टि इधर-उधर घुमायी। मरूस्थ्ल था। रेत चारों और बिखरी पड़ी थी। पर दूर एक उपवन दिख रहा था। जाना पहचाना उपवन था ! बस उसी की ओर बढ चले !
सूर्य ढल गया। पंछी नीड़ों को अपने-अपने लौट आए
सोने के पिंजरे में पला पंछी स्वच्छंद-वातावरण में उड़ता रहा पिजरे की जब याद आयी, सुख-वैभव ही जब याद आई, ‘पर’ जब थक गए, मुख मे सुरक्षित ‘दाना’ जब समाप्त हो गया तो वे लौट आए
वापिस अपने पिजरे में !
सुदर्षन भी लौट आया। पैसा सारा समाप्त करके। बीस दिन तक सभी ने रंगरेलियां मनाई, फिर लौट आए, पिजरे में बंद रहकर मिलने वाने दाने से रंगरेलियां मनाने के लिए !
सुदर्षन ने घर कदम रखा तो लक्ष्मी देवी ने उसे गले लगा लिया स्नेहिल-नेत्रों से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होने पूछा, ‘‘सफर कैसी बीता, बेटा ? तबीयत तो खराब नहीं हुई ?’’
‘‘बहुत मज़े आए, मम्मी !’’
मां का व्याकुल हृदय षांत हो गया। पुत्र जितने दिन दूर रहा, वो उसी का हरपल ध्यान करती रही। आज लौटा, उसे षांति प्राप्त हुई। उसे बड़े प्यार के साथ खाना-खिलाया फिर सो जाने को कहा। ममता का उबाल ! आंखे जितने दिन दूर रही, प्राणी उतने ही दिन बेचैन रहा। आज मिली तो उसके प्रति प्यार का सागर उमड़ा !
दिन ढलने तक सुदर्षन ने आराम किया। चायादि से निवृत होकर मित्रों से मुलाकात करने के लिए घर से निकल पड़ा बाहर निकला कि आमित दिखाई पड़ा। दोनों ने एक-दुसरे को देखा मुस्कराये। समीप आ गया। अमित ने पूछा -
‘‘कब आए, सुदर्षन ?’’
‘‘आज सुबह !’’
‘‘सफर कैसा बीता ?’’
‘‘बहुत मजेदार !’’
‘‘कौन-कौन-सी जगहें देखी ?’’
अमित ने अगला प्रष्न किया। मन में उत्पन्न हुई उत्सुकता की संतुष्टि कर रहा था वह।
‘‘बम्बई, गोआ, जयपुर और बहुत-सी छोटी-मोटी !’’
सुदर्षन का संक्षिप्त उतर।
‘‘अंजता-ऐलोरा की गुफाएं देखी ?’’
‘‘सबसे पहले !’’
दो क्षण तक चुप्पी रही। अमित ने फिर पूछा ‘‘अच्छा लाए क्या-क्या हो ?’’
‘‘अरे ! लाना क्या था ? ऐसी कोई चीज ही न दिखी, जो अपने पास न हो !’’
‘‘फिर भी !’’
‘‘कुछ कपड़े और कुछ षराब ! गोवा में षराब बड़ी सस्ती थी !’’
‘‘षराब !’’
अमित के मुख से निकला। फिर बोला ‘‘तुम मुर्ख हो, सुदर्षन ! गंदी वस्तुओं पर पैसा खर्च करते हो ! तुम्हें षराब का सेवन करने से मिलता क्या है ?’’
‘‘आनंद !’’
‘‘आनंद ! इसीलिए तो कहता हंू तुम मूर्ख हो ! अरे ! ‘आनंद’ षब्द का अर्थ जानते भी हो !’’
‘‘अरे वाह ! ये भी कोई दुर्लभ षब्द है ! आनंद का अर्थ धन-दौलत हैं ! जानते हो अमित, धन के बल पर हम सारी दुनियां की खुषियां अपने आचल में समेट सकते हैं ! खाना-पीना-नाचना-गाना ही तो आनंद है !’’
‘‘गुब्बारों और साबुन-युक्त पानी के बलबुलों को देखकर तुम्हीं जैसे मूर्ख प्रसन्न हो सकते हैं और यह धारण कर सकते हैं कि उन्हें ‘आनंद’, वह भी सच्चा, मिल रहा है। सुदर्षन ! आनंद तो मस्तिष्क की वह स्थिति है जब मनुष्य अपने आपको खुष व संतुष्ट महसूस करता है, अर्थात जब उसके मन से आषा, तृष्णा आदि की भावना समाप्त हो जाती तब उसे आनंद की स्थिति प्राप्त होती है।’’
‘‘अमित ! मुझे तो इन्ही का सेवन करके सुख और षांति प्राप्त होती है। बाकी आगर तुम और कुछ भी कहना चाहते हो तो उसे मैं सुन नहीं सकता, मेरे पास समय नहीं है !’’
इतना ही कहकर सुदर्षन तेजी से आगे बढ गया। अमित उसे जाते देखता रहा, फिर चुपचाप कुछ सोचते हुए घर आ गया। कमरे में आकर उसने डायरी निकाली और कुछ सोचने लगा। कुछ क्षणों पष्चात लेखनी चली।
कहता है इनसे उसे आनंदानुभूति होती है ! कहता है ‘मनुष्य को अपना भाग्य आजमाने के लिए जुआ खेलना चाहिए विचारषील प्राणी बनने के लिए उसे सिगरेट का इसतेमाल करना चाहिए, गम को गलत करने व आनंदलोक में पहंूचने के लिए उसे षराब व अन्य नषीले पदार्थो का सेवन करना चाहिए ! मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, ‘आत्मिक-आनंद’ की प्राप्ति और ये आनंद इन वस्तुओं के सेवन के बिना प्राप्त नहीं हो सकता ! भोला है ! साथ ही ये भी कहता है ‘दो दिन की जिन्दगी है, उसे भी हंस खेल कर न बिताउ तो जीने का फायदा ही क्या !’
ये समझता है ‘आनंद एक खिलौना है, एक षक्तिवर्धक पदार्थ है ! मगर ऐसी बात नहीं ! आनंद देखा नहीं, महसूस किया जा सकता है। आनंद खरीदा नहीं जा सकता, मगर तब भी प्राप्त किया जा सकता है ! ये हमारे हृदय व मस्तिष्क में निवास करता है और फूलता-फलता भी वहीं हैं। इसकी बाहरी-जगत मंे खोज करना ठीक उसी प्रकार की मूर्खता होगी, जिस प्रकार कुड़े के ढेर में सूई को ढूढंने का प्रयत्न किया जाए। पर आज का सांसारिक मनुष्य अज्ञानी है। वो ‘आनंद’ के वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचानता और इसी कारण गलत वस्तुओं में आनंद की झलक देखता है। इस गलतफहमी में पड़कर बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति को बुरे परिणाम को सामना करना पड़ता है। सब कुछ वो भूला है। सब कुछ वो बदल चुका है।
जीवन का रंग-ढंग और रूप
बदल कर स्याह पड़ गया है।
मातम पर भी अब
रंगीनियों का पर्दा पड़ गया है।
कभी वो भी समां था
जब ‘रंग’ से रंग मिला करता था
जीवन क्या है ? अमोल वस्तु !
मानव को अपना मूल्य पता था।
जीवन के अब रंग बदल गए
जषन मनाने के ढंग बदल गए।
जीवन का अब मूल्य नहीं है
‘जाम’ के तुल्य ‘अतुल्य’ नहीं है।
लेखनी थकी। अमित ने उसे रख दिया, फिर लिखे को पढ़ने लगा।