गर्मियों के दिन थे। अमित अपने घर की छत पर सोया हुआ था। रात ढलने को आ गई थी। तम का राज्य समाप्त हो रहा था। भेार हो गई थी। पक्षीगण अपने घोंसलों से निकलकर कलरव करने लगे थे। सुबह के पांच बज गये थे।
आज मौसम और दिनों की अपेक्षा काफी सुहावना था। ठंडी-ठण्डी वायु के झोंको का स्पर्ष पा अमित की आंख खुल गई। आंखों में छाया आलस्य षीतल सुगंध-समीर का आभास पाकर पलभर में दूर हो गया।
यंू तो सुर्य देवता के उगने का समय हो गया था। मगर बादलों के कारण उनका रथ दिखाई न पड़ा। नित्य कर्म से निर्वत होकर अमित सुबह की सैर को चल पड़ा गर्दन उठाकर उसने आसमान की और देखा, बादल खिलवाड़ में लीन थे, सुदर-चंचल रंगीले बादल ! घनघोर घटा के साथी बादल ! वातावरण अत्यधिक स्वच्छ था। धुधंला पन रतीभर भी नहीं था। दूर-दूर तक की चीज दिखाई पड़ रही थी।
अमित गुनगुनाता हुआ मध्यम चाल से आगे बढ़ रहा था। मौसम की मादकता उस पर छायी हुई थी। मन में कोमल भाव आ जा रहे थे। कुछ क्षणों पष्चात भाव प्रकट हुए
इस भांति:
मैं बादल हंू
वही बादल हंू,
जो नभ में विचरा करते हैं,
उमड़-घुमड़ कर
भोली प्रकृति से बाते करते हैं।
कभी किरणों को
उर में समेट
सतरंगी बन नभ में छा जाते हैं,
कभी नीर लिए सागर का,
रौद्र रूप धारण किए,
बरसने को आते है।
षीतल-मदं-सुगंध समीर,
जब बहती है,
ये कोमलता का प्रतीक बन
चंचल क्रीड़ाएं दर्षाते हैं।
वही बादल हंू
मैं बादल हंू,
संुदर-चंचल-रंगीला बादल,
घनघोर घटा का साथी बादल !
एकाएक बादलों की उमड़-घुमड़ का षोर बढ़ गया। अमित ने लौटना ही उचित समझा। वो वापिस घर की ओर चल पड़ा। घर से अभी वो दूर ही था कि वर्षा आरम्भ हो गई। भीगता-भीगता वो घर पहंुचा। वर्षा में भीगने से उसे बड़ा आनन्द मिला। घर आकर उसने गीले कपड़े उतार कर तौलिया बांध लिया और बरामदे में खड़ा होकर वर्षा का दृष्य देखने लगा। एकाएक वो फिर गुनगुनाने लगा। एक कविता उसके होठों पर खेलने लगी:
रिमझिम - बरखा आई
खुषियों को अपने संग लाई
बगिया में बहारे आई
हर कली फूल बन मुस्काई।
विरह-गीत ने सुर बदला
मिलन की चाह दिलों में आई।
मंद-सुंगध समीर लिए
वर्षा ऋतु की घड़ी आई।
कुछ देर और वो यूं ही तुकबदिंयां मिलाता रहा, फिर नहाने के लिए गुसलखाने में जा घुसा।
नहा-धोकर वो पूजाघर में आ गया। भगवान की मूर्ति के सम्मुख वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विनती करने लगा।
‘‘हे दयानिधान ! मैं तुमसे एक वर चाहता हंू। वो यह कि तुम सदा मुझ पर अपनी दयादृष्टि रखो। मुझे न धन का लोभ है, न मान का और न ही किसी अन्य प्रदार्थ का। ये सब तो आंधी की तरह आते है। और तुफान की तरह चले जाते है। मैं तो चाहता हंू आनन्द ! वो भी वास्तविक जो मुझे तुम्हारी भक्ति से, ज्ञानवान वातावरण बनाने से मिल सकता है। तुम मुझमें ऐसी षक्ति भर दो ताकि मैं षुद्ध मन से तुम्हारी भक्ति कर सकूं, ज्ञान प्राप्त करके औरों में ज्ञान भर सकूं।
‘‘मैं अपनी बाकी उम्र में सुख-दुःख के साथ आंख-मिचौली खेलना चाहता हंू। हे दयानिधान ! मैं सिर्फ सुख-ही-सुख नहीं चाहता। सुख के सागर में जब सदा मानव की जीवन नैयया विचरण करती रहती है, तो उसमें से कर्म की भावना लुप्त हो जाती है, साथ ही जब कोई व्यक्ति सदा दुःखी रहता है, तो उसका जीवन नीरस बन जाता है। ऐसे में भी वह अकर्मण्य बन जाता है। कर्मषील व्यक्ति बनने के लिए जीवन में सुख-दुःख का मिश्रण जरूरी है। हममें कठिन-से-कठिन कार्य को तत्परता से करने का उत्साह होना चाहिए। सत्य की राह खांडे की धार के समान हो तो हम जीवन वास्तविकता से परिचय पा सकते हैं।’’
अमित कुछ पल के लिए षांत हुआ, फिर बोला:
हे करूणानिधी ! मांझी अगर अपनी नाव नदी के एक ही किनारे पर खड़ी रखे तो वो जल्द ही अपने कर्म से उब जाएगा और वो अपने सच्चे कर्म को त्याग कर कोई दूसरा कार्य करने लग जाएगा और यदि वो अपनी नाव को सदा एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर खेता रहे, तो उसे कभी भी अपने कर्म से उकताहट महसूस न होगी, वह अपने कार्य को बड़ी तन्मयता के साथ करता रहेगा।
हे ईष्वर ! आत्मा नदी है, संयत उसपर पवित्र घाट है, सत्य उसका जल है, षील तट है और दया तरंग है। मेरी यही प्रबल अच्छा है कि मैं इसमें स्नान करूं इससे आत्मषुद्धि होगी, कर्म करने की भावना तीव्र होगी और लक्ष्य की प्राप्ति होगी। भवसागर का एक किनारा सुख है और दूसरा दुःख। नाव हमारा जीवन है और मांझी हैं स्वयं हम ! मेरी जीन-नैयया कभी सुख के किनारे से दुःख के किनारे की ओर, और कभी दुःख के किनारे से सुख के किनारे की ओर बहती रहे। ऐसा खिलवाड़ जीवन में होता रहे, यही मेरी उत्कण्ठा है। इसको तृप्त करे, हे दीनदयाल !’’
मूर्ति के चरणों में सिर नवाकर वह पूजाघर से बाहर निकल आया। आसमान अब साफ हो चुका था। धूप खिल चुकी थी। तभी लवलेष आ गया। अमित उसका हाथ पकड़े अपने कमरे में आ गया।
‘‘और भाई, क्या कर रहे थे ?’’
मुस्कुराते हुए लवलेष ने पूछा।
‘‘बस अभी पूजा से निवृत हुआ था’’
‘‘पूजा !’’
आष्चर्य-चकित भाव लिए लवलेष बोला।
‘‘इतना आष्चर्य !’’
‘‘यूं ही !’’
खिसिया गया लवलेष। कुछ पल फिर षांति रही। लवलेष कुछ सोचता रहा। फिर बोला ‘‘अमित ! तुम निराकार ब्रहम् को मानते हो या साकार को ?’’
उसका प्रष्न सुनकर मुस्कुरा पड़ा अमित। बोला ‘‘मैं साकार भगवान रामचन्द्र की उपासना करता हंू। लेकिन उनमें निराकार के भी सभी गुण हैं। जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के बालकाण्ड में बताये हैं -
‘‘आदि अंत कोउ जासु न पावा,
मति अनुमानि निगम असगावा।
बिनु पद चलै सुनै बिनु काना,
कर बिन करम करेै बिधी नाना।
आनन बिनु सकल रस भोगी,
बिनु वाणी वक्ता बड़ योगी।
यह सुनकर लवलेष ने प्रष्न किया ‘‘क्या तुमने अपने साकर ईष्वर का रूप देखा है ?’’ लवलेष की वाणी में तनिक व्यंग्य भाव था।
‘‘नही उसके दर्षन तो कभी नहीं हुए, पर उसका ध्यान करने से अंदरूनी-षांति मिलती हैं, आत्मविष्वास मिलता है। मैं मानव मात्र में भी र्इ्रष्वर का अंष मानता हंू। ‘उसी की कृपा से मेरा बड़े से पड़ा संकट पार हो जाता है।
‘‘तेरी नजर नहीं तो किसी की नजर नहीं
जिस पे नजर है तेरी वो सबकी नजर मे है।
‘‘और
‘‘तू वो दाता है जो देता है मुरादें सबकी
तेरे दरवार में कोई नजर अंदाज नहीं।’’
किसी षायद के यह बोल कह अमित चुप हो, लवलेष के मुख की ओर देखते हुए, मुस्कुराने लगा। लवलेष बोला ‘‘बड़ी आस्था रखते हो भगवान में !’’
बातचीत का वास्तविक कारण था, लवलेष का नास्तिक होना। वह ईष्वर में विष्वास नहीं करता था। इसीलिए अमित से ऐसे प्रष्न कर रहा था।
‘‘संस्कारों के कारण लवलेष ! तुम ईष्वर में विष्वास नहीं करते, इसका भी एक कारण है !’’
‘‘वह तो है ही !’’
लवलेष ने कहा।
‘‘जानते हो ?’’
‘‘हां, ईष्वर को मानना या न मानना परिवार के वातावरण और संस्कारों पर निर्भर करता है। आस्था और विष्वास एक पौधे के अनुरूप हैं, जो संस्कार और वातावरण के कारण मन में उग आते हैं। मैं बचपन में भगवान को मानता था, क्योंकि मेरे माता-पिता उसको मानते हैं। अब, जबकि मुझमें थोड़ी अक्ल आ गई है, मैंने उस ईष्वर के होने का ठोस प्रमाण जानना चाहा, जो मुझे नहीं मिल सका। मंदिरों मेें ढकोसले बाजी देखी, मन टूट गया, आस्था और विष्वास का निवास-स्थान वही था !’’
अमित को लवलेष की बात सत्य लगी। कुछ पल तक चुप रहा। फिर बोला ‘‘लवलेष ! मगर तुम तो ईष्वर की आराधना करते हो !’’
‘‘नहीं, कभी नहीं !’’
‘‘मैंने कहा न, करते हो ! बेषक उस भांति नहीं, जैसे दुनियां करती है तुम्हारे कुछ कर्म ऐसे हैं जिनका दूसरा नाम ईष्वर है !’’
‘‘कौन से कर्म, कैसे कर्म ?
अचम्भे से लवलेष ने पूछा।
‘‘तुम्हारे दिन में दूसरों के लिए हमदर्दी है। तुम अपने मित्रों के प्रति ईमानदार रहते हो। तुम किसी को कष्ट नहीं देते। भाई ! ईमानदारी और हमदर्दी का दूसरा नाम ही ईष्वर है।’’
अमित ने लवलेष के गुणों को उसी के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। लवलेष की गर्दन अपनी प्रषंसा सुनकर झुक गई और वो मन-ही-मन हर्षित हो उठा।
तभी अमित की बहन नाष्ता ले आयी। दोनों बातचीत छोड़ कर नाष्ता करने लग गए। नाष्ते की समाप्ति पर लवलेष फिर से विषय पर आ गया।
‘‘अमित ! जब इमानदारी और हमदर्दी ही ईष्वर है, तो लोग व्रत-उपवास और प्रजा-पाठ क्यों करते हैं ?’’
अमित ने इस प्रष्न पर कुछ क्षण मौन धारण किए रखा। फिर बोला व्रत-उपवास व पूजा-पाठ का किसी परिवार में किया जाना अचित व आवष्यक है। उनसे घर मं पवित्रता बनी रहती है। बच्चों में अच्छे संस्कार पड़ते हैं। उनमें खोखलापन नहीं आता। पर इसके कर्मों की प्रति सजग रहना चाहिए। यदि वो बच्चों को पूजा-व्रत ईमानदारी का पाठ पढाने के साथ-साथ स्वयं ऐसे कर्म करे जिनका प्रभाव बच्चों पर विपरीत पड़ता हो, तो यह निष्चत हैं कि बच्चे उसी पथ का चुनाव करेंगे जिस पर परिवार चलता है, वो उन्हीं के बताए कोरे-सात्विक सिद्धांतों को खुले-रूप से बहिष्कार करेंगे। जब आस्था और विष्वास के पौधे की जड़ सूख जाती है, तो गलत-पथ की ओर व्यक्ति का सुझाव स्वभाविक हो जाता हे।’’
अच्छा, अमित ! ये बताओ कि ईष्वर को मानने से लाभ क्या है ?’’
‘‘कमाल है ! अभी भी नहीं समझे ! उसको मानने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि जब हम यह मान लेते हैं कि ईष्वर जो कुछ करता है ठीक करता है, तो हमें परेषान नहीं होना पड़ता।’’
‘‘और अगर ईष्वर के अस्तित्व पर विष्वास न करो तो हानि-कष्ट ?’’
अमित मुस्कुरा पड़ा़। समझ गया कि लवलेष पर उसकी बातों का कुछ असर पड़ा है। तब बोला -
जरूरी नहीं है कि जो लोग ईष्वर को नहीं मानते वो पापी या मानवद्रोही हो। वे भी मानवता के सच्चे सेवक हो सकते हैं और हुए भी है
‘‘आजकल ज्यादातर ऐसे लोग दिखाई देते है जो वैसे तो कभी ईष्वर को याद नहीं करते, और मुसीबत के समय दिन-रात उसी का नाम जपने लगते हैं। ईष्वर के प्रति ऐसी भक्ति को ‘साकाम-भक्ति’ कहते हैं और ईष्वर के ऐसे भक्त ‘आर्त-भक्त’ कहलाते हैं। ईष्वर की सच्ची-भक्ति तो निष्काम होती हैं।’’
अमित और लवलेष फिर उठ खड़े हुए। दो घंटे तक उन्होने साईकिल-सवारी की और फिर एकांत स्थान पर जा बैठे। षंांति पाकर उनके चेतन-मन को हर्ष हुआ। वो स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने लगा। अमित-लवलेष उसी का आनंद उठाने लगे।