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खोखली नींव
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खोखली नींव Voice and Text
     
खोखली नींव (दो)
ISBN: 345

 शाम के सात बज रहे थे। आसमान पर डूबते सुर्य की रोशनी के कारण, लालिमा छाई हुई थी और सारे वातावरण में स्वच्छता-ही-स्वच्छता दिखाई पड़ रही थी। सड़कों पर काफी रौनक थी। तफरीह के लिए निकले लोग, अपने साथियों के संग बातें करते हुए, अपनी-अपनी राह पर धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे। युवा वर्ग के सदस्यों की संख्या भी काफी नज़र आ रही थी। इनमें तकरीबन सभी सिगरेट पीते हुए, जोर-जोर से भददी बातें करतें हुए चल जा रहे थे।

 
सुदर्शन, गुरजीत के संग टैगोर पार्क की मुख्य सड़क पर फिजूल बातें करता हुआ चल रहा था। दोनों आपस में एक दूसरे से भददा-मजाक करते हुए शाम की ठण्डी हवा का आनंद उठा रहे थे। बातों-ही-बातें में टैगोर पार्क की मुख्य मार्किट आ गई। पनसारी की दुकान देखकर सुदर्शन बोला ‘‘ठहर यार, जरा सिगेट ले लें।’’
 
सुदर्शन दुकान की ओर बढ़ गया। गुरजीत ने भी उसका अनुकरण किया।
 
‘‘दो पनामा देना।’’ साथ ही एक चवन्नी सुदर्शन ने पान वाले की ओर वढ़ा दी।
 
चवन्नी उठाकर पान वाले ने अपने गल्ले में डाली और बाकी पैसों के साथ उसने ‘पनामा’ ब्रांड दो सिगरटें सुदर्शन को थमा दीं।
 
‘‘लो गुरजीत !’’
 
एक सिगरेट सुदर्शन ने गुरजीत की ओर बढ़ा दी। दोनों ने वहीं पड़ी सुलगती रस्सी से अपनी-अपनी सिगरेट सुलगाई और आगे बढ़ चले।
 
हर कश का आनंद लेते हुए दोनों चल जा रहे थे। जीवन मस्ती का झरना है, यही कह रहा था हर कश का धुंआ !
 
‘‘गुरजीत ! आज मेरे दिल में प्यार का सागर ठांठे मार रहा है।’’ बड़े बनावटी अंदाज में धंुआ मुख से निकालते हुए सुदर्शन कहने लगा ‘‘राह में आज अगर अपनी ‘छमकछल्लो’ मिल गई तो उसका रास्ता रोककर कहंूगा ‘‘प्रिय प्राणेश्वरी ! एक बार यह कह दो कि तुम मुझये प्यार करती हो। देखो ! मैं मजनूं की तरह तुम्हारे वियोग में तड़प रहा हंू।’’
 
‘‘और फिर तुम्हें तुम्हारी ‘छम्मकछल्लो’ बहुत अच्छा प्रसाद देगी ! क्यों ?’’
 
हंसते हुए गुरजीत बोला।
 
‘‘जब प्यार किया तो डरना क्या ! बेटे ! अगर उसका हाथ अपनी चप्पल की ओर बढ़ा तो मैं उसी को पकड़ कर न चूम लूं तो मेरा नाम सुदर्शन नहीं !’’
 
‘‘बड़े हसीन विचार हैं तुम्हारे ! पर जानते हो फिर क्या होगा ? अपनी ससुराल के दर्शन करने को मिल जाएंगे।’’
 
‘‘अरे ! जिस ससुराल की बात तुम कर रहे हो उसके दर्शन तो किसी का बापू नहीं करवा सकता। हां, अगर कोई सज्जन मुझे मेरी ‘छम्मकछल्लो’ के बंगले के दर्शन करवाने ले चलेगा, तो मैं सहर्ष उसके साथ चलने को तैयार हो जाउंगा। समझे ! हा-हा-हा-हा !’’
 
दोनों हंसने लगे। तभी गुरजीत ने कुछ लड़कियों को सामने से आते देखा। बोला ‘‘वो देखो, सुदर्शन ! तुम्हारी ‘छम्मकछल्लों रीटा रानी आ रही है।’’
 
ओ-हो ! आज तो वो अपने साथ पूरी सेना लिए है।’’
 
‘‘तो क्या हुआ ? सच्चा वीर अकेला हजारों का मुकाबला कर सकता है। ये तो प्रेमक्षेत्र है। वो सिर्फ छः हैं। लड़कियां हैं। सब कुछ सह लेंगी। हो जाओ तैयार, प्रेमाभिनय करने के लिए।’’ मुस्कुराते हुए गुरजीत ने कहा।
 
उसने जितनी डींगे मारी थी अपने साहस की सब चूर-चूर हो गई। ‘‘निकल गई जान !’’ चिढ़ाते हुए गुरजीन बोला।
 
‘‘अरे ऐसी बात नहीं ! अभी काफी दिन जीना है मुझे। मुलाकातें होती रहेंगी। फिर किसी दिन सही। अब जरा उसके दिल पर छुरियां चलाने दो मुझे।’’ और फिर एक लम्बा कश लेकर उसने सिगरेट दूर फेंक दी और मस्तानों जैसी चाल चलने लगा। उसके सामने से छः लड़कियां आ रही थी। उड़ती हुई निगाह इन दोनों पर डालते हुए वो आगे बढ़ गई। उसके दो कदम आगे जाने पर सुदर्शन ने आवाज कसी ‘‘हाय ! मेरी छम्मकछल्लों कब तक यूं तड़पाओगी ?’’
 
साथ ही गुरजीत बोला ‘‘मेरी छममकछल्लों भाभी ! मेरा भाई तुम्हारे वियोग में तड़प रहा है ! बेचारे पर दया करों।’’
 
इनकी ये भददी आवाजें सुनकर सभी लड़कियों ने पीछे मुड़कर गालियों की बौछार कर दी।
 
‘‘कमीनो !’’
 
‘घर में मां-बहन मर गई हैं क्या ?’’
 
‘‘बदमाश !’’
 
‘‘आवारा कुतों !’’
 
इन गालियों का उन पर रती भर भी असर न पड़ा। वो हंसते हुए आगे बढ़ चले। राह चलते लागों में से कुछ न अपनी मुस्कुराहट दिखाकर राह ली और कुछ ने नाक-भों सिकोड़कर। मगर किसी ने उन दोनों से कुछ नहीं कहा।
 
थोड़ी देर पश्चात गुरजीत का घर आ गया। बातों का क्रम टूटा हाथ मिलाकर गुरजीत ने सुदर्शन से विदा ली। सुदर्शन अब अकेला ही अपने घर की ओर ब़ने लगा। थोड़ा आगे अपने आने पर उसे अमित आता दिखाई दिया। सुदर्शन को जब भी कभी अमित मिला करता था, वो उसे बुला लिया करता था। आज भी यही हुआ। अमित ज्योंही उसके समीप आया, सुदर्शन ने उसे पुकार लिया ‘‘क्या हाल है अमित !’’
 
‘‘मैं तो ठीक हंू। तुम सुनाओ ?’’ मृदु वाणी में अमित ने कहा। ‘‘ऐश कर रहे हैं !’’ अगर और केाई दिन होता तो अमित ‘अच्छा भाई’ कहकर आगे ब़ चुका होता। परंतु आज वो आगे जाने के बजाए मुड़ पड़ा और सुदर्शन के साथ-साथ चलने लगा। सुनर्शन को कुछ आश्चर्य हुआ। मगर उसे उसने प्रकट न किया।
 
सुदर्शन परीक्षाएं नजदीक आ गई हैं, प़ना शुरू कब करोगे ?’’ बिना काई भूमिका बांधे अमित ने प्रश्न किया उसे कुछ ‘एहसास’ करवाने की चेष्टा की।
 
‘‘अभी तो दो महीने पड़े हैं, प़ लूंगा।’’ लापरवाही भरे शब्द थे। अमित कुछ पल तक उसके लापरवाहमन के बारे में सोचता रहा, फिर बोला ‘‘सुदर्शन ! जब हम छोटे थे तो अच्छे मित्र बनकर रहते थे। ज्यों-ज्यों हमारी उम्र ब़ने लगी, हमारी मित्रता के वृक्ष की जड़ें खोखली होने लगीं हमारे विचार बदलने लगे। राहें अलग-अलग थीं, सो हमारी दोस्ती टूट गई। परंतु आज मैं तुम्हें बचपन की मित्रता की खातिर कुछ कहना चाहता हंू। अगर बुरा न मानो तो कहंू ?’’
 
अमित जब कभी एकांत पाता, सुदर्शन के बारे में ही सोचा करता। आज उसने सुदर्शन को समझाने का दृ़ निश्चय कर दिया था। वो सुदर्शन के साथ तर्क-वितर्क कर उसे इस बात का एहसास करवा देना चाहता था कि बुरे कमों्र का फल बुरा होता है। आज मोका मिला था, जिसे वो खोना नहीं चाहता था।
 
‘‘बोलो, क्या कहते हो ?’’ इस पर अमित को दो पल के लिए चुप हो जाना पड़ा। इन्ही पलों के भीतर उसने अपनी बात कहने का
 
ढांचा बना लिया और बोला, ‘‘सुदर्शन ! दिन भर जो करते रहते हो, वो कितना गलत है, जानते हो ? स्कूल जाने से बेहतर तो नहीं जुआ-फिल्में-रंगरेलियां ?’’
 
‘‘क्या कहा !’’ साथ ही हंसा सुदर्शन।
 
‘‘इतना अचम्भा अरे तुम के नाम पर ऐसे हंसे जैसे स्कूल, न होकर पागलखाना हो !
 
‘‘स्कूल पागलखाने कम होता है क्या’’
 
-- वो फिर हंसा।
 
सुदर्शन ! स्कूल पागलखाना हो या न हो मुझे तुम जरूर पागल लगते हो।’’
 
होउंगा ! पर स्कूल पागलखाने से कम नहीं होता, इतना फिर भी कहंूगा। दिनभर बेमतलब के भाषण झाड़ने वाले अध्यापक दो-दो किलो की पुस्तक उठाये विद्यार्थी जिस जगह के सदस्य हों, वो पागलखाना नहीं तो और क्या है ? दिनभर बेकार में मोटी-मोटी पुस्तकों से माथापच्ची करना, पागलपन की नहीं तो और किसकी निशानी है ? मानव-जीवन का लक्ष्य जानते हो, अमित ? आत्मिक आनंद प्राप्त करना हमारा लक्ष्य है। ये आनंद पुस्तकों के अध्ययन से नहीं, साधूवाद से नहीं, ईश्वर-भक्ति से नहीं, बल्कि मौज-मस्ती मारने से मिलता है। अमित ! तुम पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो जबकि मैं वास्तविक। मुझे यह स्कूल में नहीं मिलता। इसीलिए मैं स्कूल जाने से बेहतर घूमना-फिरना पसंद करता हंू। नाममात्र का विद्यार्थी हंू। अध्यापक मेरे पैसे पर मरते हैं। जो पैसा लेकर चुप हो जाये, फिर क्या जरूरत है उसके साथ पुस्तको में सिर खपाने की ?’’ अपनी लंबी चौड़ी बात कहकर सुदर्शन चुप हो गया। तब अमित बोला ‘‘पर सुदर्शन, तुम जो कार्य करते हो उनसे वास्तविक ज्ञान तो पा्रप्त नहीं होता। हम विद्यार्थी हैं। विद्या का अर्थ ग्रहण करना हमारा कर्तव्य है, न कि विद्या की अर्थी निकालना। हमें सिगरेट, शराब पीना, जुआ खेलना शोभा नहीं देता। जरा सोचो ! सिद्धातों को जाने बिना भला कोई व्यावहारिक क्षेत्र में उतरते ही सफलता पा सकता हैं ? सुदर्शन ! ये शिक्षा ही है, जिसके कारण हम बहुत थोड़ी, कभी-कभी गलतियां करते है। तुम शिक्षा को भूलकर गलत कामों में तल्लीन हो। ये काम करने छोड़ दो। क्यों समाज की नजरों में बुरे बनते हो ?’’
 
अमित ! मैं जो कुछ भी करता हंू, अच्छा समझ-मानकर ही करता हंू। मेरे विचारानुसार ये काम बुरे नहीं। तुम जुआ खेलना, सिगरेट-शराब पीना बुरा समझते हो ये तो व्यक्ति की नजर का फर्क है, विचारों का फर्क है। जिसके जैसे विचार होते हैं, वो वैसा ही सोचता है जिसकी जैसी नजर होती है, वैसी ही वस्तु को परखने की उसमें शक्ति होती है।’’
 
‘‘सुदर्शन ! मैं तुम्हें यही कहना चाहता हंू कि तुम्हारे विचार गलत हैं, तुम्हारी नजर बुरी है क्षीण है। तुम दुषित विचारों को रखते हो। दुषित भावनाओं वाले व्यक्ति को अपने अंतर्मन से दुषित कर्म करने की प्ररेणा मिलती है।’’
 
‘‘अमित ! तुम न जाने कौन से युग की बात कर रहे हो। अरे ! आज के युग में तो ये काम बहुत अच्छे माने जाते हैं, पुराने रू़िवादी विचारों का अब मूल्य नहीं, मूल्य तो इन्हीं का है। सिगरेट शराब पीना, जुआ खेलना आधुनिक युग का सबसे प्रबलतम फैशन है और फैशन की दौड़ में पीछे रहना मैं महामूर्खता समझता हंू।
 
‘‘इन खोखले फैशनों में कुछ नहीं पड़ा, सुदर्शन! ये स्वयं तो खोखले हैं ही, साथ ही तुम्हें भी खोखला कर देंगे ! और सुदर्शन, पुरानी मान्यताओं का अब मूल्य नहीं रहा, इसका कारण विकास नहीं अपितु मानव मस्तिष्क की खोखलाहट है। आधारहीन-साज रंगशाला के मुकुट समझे जाने लगे हैं !’’
 
सुदर्शन का रूख एकाएक बदल गया। उसे अमित के सदविचार अखरने लगे। अमित की बात पर कोई टिप्पणी किए बिना वो बोला,
 
--‘‘देखो अमित ! मैं जैसा अब हंू, वैसा सदा ही रहना पसंद करूंगा, मेरे ऐसा होने पर दुःख हैं, तो तुम भी मेरे जैसे बन जाओ। असमानता समाप्त हो जाएगी !’’ और फिर तेजी के साथ वो आगे निकल गया। उसका घर सामने ही था। अमित की ओर देखे बिना वो भीतर चला गया।
 
‘‘जब उसे अपने भले-बुरे की परवाह नहीं, तो मुझे क्या पड़ी है सिर खपाने की !’’
 
‘‘कोशिश जारी रखना तुम्हारा कर्तव्य है, अमित !’’
 
-- अंतर्मन बोला।
 
‘‘किस नाते ?’’
 
--स्वयं से ही एक प्रश्न।
 
‘‘मानवता के नाते किशोर समाज के नाते !’’
 
--वही आवाज़ फिर आई। अमित अपने कमरे में आ गया। अलमारी खोलकर उसने अपनी डायरी निकाली और अपनी दिनचर्या लिखने लगा। सुदर्शन के बारे में उसने कलम चलाई ही कि एक शब्द उसके मस्तिष्क में उभरा ! चिर-परिचित शब्द
 
----- जीवन ---!
 
एक सुंदर रूप ! जिसको पाने की चाहत हर किसी को होती है! मैं भी चाहता हंू जीवन, तुम भी चाहते हो जीवन, तुम भी चाहते हो जीवन, सुदर्शन भी चाहता है जीवन ! पर जो जीवन, जैसा जीवन मैं जीना चाहता हंू वैसा सुदर्शन नहीं ! मैं चाहता हंू सादगी, वो ‘सादगी’ को देखकर हंसता है। मैं चाहता हंू बनना कर्तव्य-परायण, वो कर्तव्य से दूर भागा फिरता हैं। जिसे मैं देवता मानकर पूजता हंू, उसे वो भूल समझ दूर भागता है ! में निष्फल-कर्म निरंतर करता रहता हंू और वो निष्कर्म फल चाहता है ! मुझमें और उसमें इतना अंतर ! उसमें इतना परिवर्तन ! कौन गलत, कौन ठीक ?
 
मैंने जो लक्ष्य अपनाया है, वो मेरे जीवन को चमकायेगा सुखमय बनायेगा, मुझे मेरे कर्मांें के कारण ही शांति प्राप्त है, सदा शांति प्राप्त रहेगी। पर उसका लक्ष्य ? न मुझे मालूम, न उसे ही ! भविष्य को भूलकर वो वर्तमान में जी रहा है वर्तमान जिस भांति वो बिता रहा है, उससे उसका भविष्य अंधकारमय बनेगा। वर्तमान को हमें इस प्रकार के कर्मां में तल्लीन रहकर बिताना चाहिए कि आने वाला हर अगला क्षण हमारा शांतिमय स्वागत करे हमें सुंदर-सत्य के दर्शन कराये ! पर वो सब कुछ भूला है उसे केवल याद हैं ऐसे कर्म, ऐसे चेहरे जो उसके जीवन को तबाह कर रहे हैं। वो जीवन चाहता है, मगर ऐसे कर्म करता है। क्यों ? कैसा अजीब प्राणी है वो ! चाहत को जान बूझकर ठोकर लगा रहा है !
 
--डायरी बंद करके अमित अध्ययन मेे जुट गया।
 
टन् !
 
रात का एक बज गया !
 
पुस्तक बंद करके अमित रजाई में दुबक गया। स्वप्नलोक में उसे सुदर्शन जैसे अन्य किशोरों के विचार प्राप्त होते गये। वो उन्हेी में खो गया। उसका शरीर बिस्तर पर पड़ा था, और आत्मा विचारलोक में विचरण करती हुई पथ-भ्रष्ट-किशोरों को सुधारने का उपाय खोज रही थी।
 
अमित को इस बात का आभास हो चुका था कि गलत कार्यों मे तल्लीन सभी किशारे अपनी आत्मा को हनन किये बैठे हैं। वो संयमहीन-संस्कारहीन हैं, इसीलिए अपनी आत्मा की आवाज़ को सुन नहीं पाते। हर बुरा कार्य करते समय, एक अंदरूनी आवाज व्यक्ति को वो कार्य करने से रोकती है, वो आवाज चीख-चीख कर ‘नहीं-नहीं’ कहती है। मगर -
 
आत्मा--
बेचारी की बात
कोई सुनता नहीं,
कुछ लोग आज के
कहते हैं -
‘आत्मा कुछ भी नहीं’
है कुछ अगर तो ‘वो दिल हैं।’
मस्त हो दिल की बातों में
पथभ्रष्ट व्यक्ति हो जाता हैं,
होश आने पर अपने को
वो अंधकार की गर्तों में पाता है।
 
अमित सोलह वर्ष से कुछ अधिक उम्र का था। इस उम्र में ज्यादातर सभी हंसते-खेलते रहते हैं। सभी को अपने-आप से मतलब रहता है। कोई किसी काी अच्छाई-भलाई के बारे में नहीं सोचता। मगर अमित अपने किशोर समाज से अलग प्रकृति का था। उसके मन में सदा बुरों की बुराईयों को दूर करने के विचार उठते रहते थे। वो उनकी कमियों को दूर करने के सरलतम उपाय सोचा करता था। एकांत में बैठकर वेा अपने समाज की नितियों-कुरीतियों के विषय में सोचा करता था। उसके विचार काफी प्रौ़ थे। इसी उम्र में उसके मन में समाज-सुधार की भावना घर कर रही थी। वो चाहता था कि सभी किशोर सुधर जाएं, सभी लक्ष्य को पहचान लें और उसे प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयत्न करना शुरू कर दें। उसे यह देखकर दुःख होता था कि वो सब, उसके सहपाठी अपने लक्ष्य को भूलकर गलत कार्यों को करने में तल्लीन हैं।