देव दो नावों पर सवार हुआ स्वयं को पाता था| हरदम उसे लगता था कि वीणा है उसके साथ तो उसका दर्द कोई मायने नही रखता| दूसरा वह कभी सोचता वीणा की निजी जिन्दगी के बारे में तो लगता उसने अन्याय किया है उसके साथ शादी करके| दर्द जब भी बड़ जाता तो उसे डर लगने लगता कि यह दर्द सदा रहने लगा तो न जाने इसका परिणाम क्या हो! ढ़ेर-सी किताबें पड़ने लगा था| ढूँढने लगा था दर्द का कारण| लेकिन किताबों की बात क्या, एक सच जो उसे सामने दिखने लगा था, उससे मुँह छिपाने के लिए वह वीणा की बाँहों का सहारा लिए रहता था| एक क्षण भी उसे अपनी आँखों से दूर न कर पाने की उसकी चाह वीणा को अपने प्रति प्रेम ही लगती थी|