यह गली अपने आप में निराली हैं। इसमें बने सभी मकान एक जैसे नहीं। इन मकानों में रहने वाले प्राणी भी भिन्न भिन्न प्रकृति व प्रवृति के हैं। मकान कच्चे भी हैं, पक्के भी। लकड़ी की दीवारों वाले भी हैं, ईटों वालें भी। मिट्टी से चिने हुए भी हैं, और सीमेंट से बने भी। पक्की छतों वाले भी हैं, कच्ची छतों वालें भी।
कभी यह गली, गली नहीं थी। ऐसी भीड़ यहाँ नहीं थी। दो-चार मकान थे। एकदम खुली जगह थी। साधूराम का घर था, मुंशी का घर था और कुछ दूरी पर कुम्हार का। बस ... । सौ गज दूर तक और कोई मकान नहीं था लेकिन जनसंख्या के बढ़ने के साथ-साथ यहाँ और लोग भी आकर बसते गए। कोई किसी की रोक न सका। और इसके फलस्वरूप बरसों पहले जो खुली-हवादार जगह थी, अब एक गली बन गई है। घुटन भरी-अँधेरी। ऐसी गली जहाँ कई संसार बसे हैं। सभी के अपने-अपने, छोटे-छोटे। इसीलिए यहाँ अभी तक प्रकाश नहीं आ पाया।
यहाँ कुम्हार भी रहता हैं, लौहार भी। धोबी भी रहता हैं, सरकारी मुंशी भी। स्कूल का मास्टर और साधूराम जैसा दुकानदार भी। सभी की अपनी-अपनी दुनिया है। सभी उसी में मस्त हैं। धोबी दिन-रात कपड़ों की धुलाई में मस्त रहता है, लच्छन लौहार लोहा कूटने में। कुम्हार अपनी चाक के पास बैठा मिट्टी के बर्तन बनाता रहता है। मुंशी जी को अपने परिवार का विस्तार करने में, मास्टर जी को ट्यूशन रखने में और साधूराम और शांति को अपने कल्पना लोक में विचरते रहने में आनंद आता है। इसीलिए कोई किसी की थाह लेना पसंद नहीं करता।
और शायद इसीलिए लच्छन यहाँ टिक कर नहीं रह पाया। वह उदास यहाँ आया था, आज और भी उदास हुआ यहाँ से जाने को उद्यत है। अपना थोड़ा-सा, जो भी उसका सामान था वह बाँध कर चल पड़ा। कहीं और जाने के लिए उसने इस गली से विदा ले ली गली से निकलकर वह खुले मे आ गया। सामने से साधूराम आ रहा था। लच्छन उसे देखकर ठिठक कर रुक गया। साधूराम की ओर देखने लगा। साधूराम के साथ एक नवयुवक भी था। वह मोहन था। लच्छन रुका रहा। साधूराम उसके निकट आया। लच्छन के कंधे पर लदा सामान देखकर वह चौंका - “लच्छन....। ये क्या ?
बस बाबा, अलविदा। - साथ ही लच्छन ने हाथ जोड़ दिए।
क्या मतलब ? ... मैं समझा नहीं। - साधूराम ने लच्छन के उदास चेहरे पर अपनी उत्सुक दृष्टी डाली।
मैं जा रहा हूँ, बाबा। - लच्छन का स्वर उदास था।
कहाँ ? - साधूराम ने पूछा।
दूर ... , कहीं और।
भला क्यों ?
मेरे पैर मचल रहे हैं। मेरा मन छटपटा रहा है। - लच्छन ने कहा।
क्यों ? क्या हुआ ? - साधूराम को लच्छन का चले जाना अच्छा नहीं लग रहा था। गली में अब एक लच्छन ही तो था, जिसे नित्य सुबह शाम साधूराम राम-राम किया करता था।
होना क्या था, बाबा। अपना मन ही नहीं लगा इस गली में। जैसी घुटन भरी, अँधेरी यह स्वयं है, वैसा ही इसके निवासियों का जीवन है। मैं खानाबदोश ही भला। ... बुरा न मानना, बाबा, यहाँ सभी अपने में ही मस्त है। कोई किसी की थाह नहीं लेता। अपनी खुशी सभी अपने में समेटें हैं। अपने दु:ख सभी अपने में छिपाए हैं - सभी एक दूसरे के निकट रहते हुए भी कोसों दूर हैं। गली के घुटन भरे वातावरण में मेरा दम नहीं घुटा लेकिन यहाँ घुट-घुट कर जीती, घुट-घुट कर मरती जिदंगियां निरंतर मेरा दम घोंटती रही।
अपने को ही ले लो तुम। अपने गम क्या अपने पास ही छिपा कर नहीं रखें? मैं अक्सर तुम्हारे घर से निकलती सिसकियों को सुनता रहा हूँ। अम्मा रोती है। उसे जो दु:ख है, मैं समझता हूँ। मैं भी किसी का बाप था, मेरी पत्नी भी किसी की माँ थी। मैं सब समझता हूँ। लेकिन मेरे समूह जैसी एकता यहाँ नहीं। यहाँ एक चलता है दूसरा रुक जाता है.. एक काम करता है दूसरा सोया रहता है... एक हँसता है, दूसरा रोता है। कोई ऐसा नहीं जो दूसरों को हँसता देखकर हँसे। रोता देखकर हमदर्द बने। मेहनत करता देखकर हाथ बँटाये। बाबा तुम भी नहीं। तुमने मेरे सब कुछ जान लिया लेकिन अपना सब कुछ मुझसे छिपाये रखा। मैंने देखा, तुमसे कोई पूछता भी नहीं। ......
लच्छन ... - साधूराम की आखें भर आईं थी। और मोहन हतप्रभ कभी साधूराम को देखता, कभी लच्छन को। लच्छन को - जिसका जीवन उनके, सभी के - मोहन के भी, साधूराम के भी - जीवन से कितना भिन्न था। कहीं लोभ नहीं, कहीं मोह नहीं। कितना सुखी कितना सरल।
अच्छा, बाबा ...। - तभी लच्छन ने मोहन को देखा। पूछा - ये कौन है, बाबा ?
यह मोहन है। इसे मैं अब अपने पास रखूँगा।
- साधूराम ने मोहन के कंधे पर अपना हाथ रखकर कहा - कहाँ से आया है ? - लच्छन ने पूछा।
ऐसी ही एक तंग गली से ...।
जरूर रखो, जरूर रखो।... अच्छा मैं चलता हूँ... । राम राम।
- लच्छन ने पुन: हाथ जोड़ दिए।
राम-राम। कभी आए तो मिलना।
आया तो, जरुर मिलूँगा।
- और लच्छन आगे बढ़ गया। कुछ क्षण तक साधूराम दृष्टी फेर दूर जा रहे लच्छन को देखता रहा, फिर मोहन को लिए गली मे प्रवेश कर गया। तब मोहन ने पूछा - बाबा। ये कौन था ?
मोहन के प्रशन का उत्तर साधूराम ने उसी क्षण नहीं दिया। वह चलता रहा ... एकाएक रुक गया। लच्छन की झोपड़ी के पास। अन्य दिनों की भांति आज न भट्टी थी, न ही कोई चिंगारी। थोड़ी-सी राख पड़ी थी। लच्छन की स्मृति दिलाने के लिए। शेष वहां कुछ नहीं था। झुग्गी की ओर संकेत करके साधूराम ने कहा - एक महीना हुआ यहाँ आकर रहने लगा था। अब चला भी गया।
ओह ...। - मोहन इतना ही कहकर चुप हो गया।
...प्रतीक्षा के क्षण सम्माप्त हुए। बाहर का दरवाजा खुला था। साधूराम ने भीतर प्रवेश किया फिर मुड़कर बाहर खड़े मोहन से कहाँ - आओ। आ जाओ।
वह झिझका, लेकिन अगले ही क्षण भीतर आ गया। शांति बरामदे में बैठी थी। उन्हें देखकर उठ खड़ी हुई। बोली - आ गए ...।
हाँ ... मोहन भी आया गया।
- मोहन की ओर देखते हुए साधूराम ने कहा। मोहन अपनी दृष्टी नीचे झुकाए खड़ा था। शांति आगे बैठी। उसके समीप चली आई। उसे उपर से नीचे तक यूँ देखा जैसे परख रही हो। फिर बोली - हमारे साथ रहोगे ?
मोहन भला क्या कहता। वह तो आया ही इसीलिए था। उसने दृष्टी उठाकर शांति के मुख की ओर देखा।
रह लोगे न ... ?
- शांति ने बात दूसरे ढंग से कही।
मोहन ने तब भी कुछ न कहा।
अच्छा ठीक है।
- शांति ने उसकी चुप्पी उसकी स्वीकृति समझी। फिर उसकी बाहँ पकड़कर खाट पर बिठा दिया। फिर कहने लगी - देखो। मेरी ओर देखो, जरा।
- मोहन ने झिझकते हुए उसकी ओर देखा। तब बोली - मेरी आखों में देखो ... इनमें माँ की व्याकुल ममता मंडरा रही है। यही व्याकुलता मिटाने के लिए मैंने तुम्हें इस घर में रखने का निश्चय किया है। स्वार्थ मेरा है, लेकिन तुम इससे अपना निर्वाह भी कर सकते हो। मैं पुत्र प्रेम की भूखी हूँ और यह भूख तभी मिट पायेगी जब तुम मुझे अपनी माँ की तरह समझोगे। तुम्हारा विगत कैसा रहा, तुम कैसे रहे, क्या कुछ तुमने किया, उसे यदि भूल गए तो तुम्हारे लिए आने वाले क्षण आनंदमयी होंगे। भूलने से मेरा तात्पर्य यह नहीं कि तुम कहने लगो कि वे दिन मेरे थे ही नहीं। ... वे दिन तुम्हारे थे। और उन्होंने तुमसे तुम्हारे सुखद क्षण छीने है, इसलिए वैसे दिन तुम फिर अपने पास नहीं आने दोगे। अपने क्षणों को व्यर्थ न जाने दोगे। तुमने बहुत क्षण यूँ ही बिखेर दिए उनसे मगर पर यही सीख लें लो कि केवल क्षणों को बिखेरना ही नहीं चाहिए, अपितु उनका इस भांति सदुपयोग करना चहिये, कि वे उज्जवल भविष्य के लिए काम आ सके। समझे मेरी बात ?
कुछ क्षण रूककर शांति पुन: कहने लगी- प्यार तभी मिलता है, आदर तभी मिलता है, जब हम स्वयं वैसी परिस्थितियां उत्पन्न करने का प्रयत्न करें। तुम यदि किसी को तंग करोगे, तुम यदि किसी को गाली निकालोगे ... कोई भी इस र्दुव्यवहार को नहीं सह पाएगा। यह करयुग है। जैसा करोगे, वैसा भरोगे। प्यार चाहते हो तो प्यार दो। आदर चाहते हो तो आदर दो। अपने सुख की चाह में दूसरों के दु:ख के साथी बनो। कोई तुमसे घृणा करता है उसकी घृणा को प्यार में बदलने के लिए तुम्हें अपनी घृणा को त्यागना होगा।
शांति चुप हो गई। मोहन के चेहरे को निहारने लगी। वह शायद उसकी बात पर विचार कर रहा था। तब पूछा - समझे कुछ ?
जी, समझा। - उसने धीरे से कहाँ।
शांति ने साधूराम के आमुख होकर कहाँ - जानते हो, अगले मंगल को दिवाली है। शुभ घड़ी मोहन हमारे घर आया है। हम दिवाली धूम-धाम से मनाएंगें। यह खुशी ही तो है हमारी, सबसे बड़ी खुशी। इसी बहाने इस घर की उदासी मिट जाएगी। भगवान ने चाहा तो फिर कभी हमारे आँगन में उदासी नहीं फटकेगी। - तभी उसे कुछ स्मरण आया - और हाँ, सुबह ही लच्छन को न्यौता दे देना दिवाली का।
लच्छन को ...।
- साधूराम को आश्चर्य हुआ।
हाँ, उसे।... उसे भी अपना साथी बना लेंगे। आपने ही तो मुझे बताया था कि वह अकेला है। नितांत अकेला.. उसका अकेलापन हमें ही तो दूर करना चाहिए, जैसे हमारा अकेलापन यह मोहन दूर करेगा। - शांति के शब्दों में उल्लास था।
साधूराम एकाएक उसकी बात सुनकर गंभीर हो गया। बोला- शांति लच्छन को बुलाना चाहती हो तो समझो दिवाली देर से आई। कुछ दिन पहले आ गई होती।
क्या मतलब ? - शांति चौंकी।
हाँ, लच्छन चला गया इस गली से।
- साधूराम का स्वर भर्रा आया।
कहाँ ? ... शाम को तो यही था। मैं मंदिर गई थी ... - उसे घोर आश्चर्य की अनुभूति हुई - लेकिन उदास-सा बैठा था, भट्टी भी नहीं जल रही थी। - फिर उसने पूछा - क्या हुआ पर उसे ? कहाँ गया वह ?
कहीं और ..., यहाँ से दूर। यहाँ रह नहीं सका। उसका दम घुटता था इस गली में।
दम घुटता था। ... लेकिन हमें तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ।
हमारा नहीं घुटता, इसलिए कि हम यादों में लिपटे वर्तमान से दूर रहते है। इसलिए कि हम इसके आदि बन चुके है। ... और वह, वह लच्छन अपना आज हंस कर बिताना चाहता था, आनंदमयी... यहाँ कोई उसे ऐसा नहीं मिला इसीलिए चला गया।
ओह। ... मैने आनंदमयी ही तो बनाना चाहा था वर्तमान अपना, उसका, आपका,..., हम सबका। ..लेकिन, खैर... अभी हम तो हैं। - यह कहकर शांति रसोईघर की ओर बढ़ गई। साधूराम उदास था। मोहन कुछ सोच रहा था।
सभी सो चुके थे, लेकिन उसकी आखों से अभी नींद दूर थी। नए वातावरण का अभ्यस्त न होने के कारण वह पल-प्रतिपल बेचैनी से करवटे बदल रहा था। ऐसी दशा में उसका मस्तिष्क भी विचारमन था। रह-रह कर शांति के शब्द उसे सुनाई पड़ रहे थे, जिन्हें ध्यान में लाकर वह गंभीर और गंभीर होता जा रहा था –
... अम्मा कह रही थी..., शायद ठीक ही कह रही थी, प्यार मिलता है, प्यार देने पर। र्दुव्यवहार करें तो ही गाली निकालता है कोई, तो ही ग्रहण करता है कोई। यहाँ प्यार मिलेगा तभी जब तक मैं इनकी भावनाओं की थाह लिए रहूँगा। मुझे इन्हें खुश रखना होगा, तभी ये मुझे अपने पुत्र की भांति समझेंगे।...- उसने करवट बदली। उसे अपना सिर भारी होता जा रहा प्रतीत हो रहा था। विचारो को बिखेरने के लिए उसने अपने सिर झटकाया, लेकिन व्यर्थ वह सोचे जा रहा था। यहाँ मगर चुप्पी कितनी है। नीरसता, नीरवता ..., कितनी मन्द गति से चलता है जीवन। यहाँ प्यार मिलेगा, लेकिन यहाँ उदासी है। कितनी चुप्पी। शोर से कोसों दूर। इतनी शांति भयावह नहीं क्या ? अपनी सब इच्छाएँ दबानी होगी मुझे। कहीं सब कुछ चौपट ही न हो जाए मेरा। यहाँ रुखी-सूखी है, मगर इस शांति को कैसे सहन करूँगा। ये बोझिल-क्षण, ये चुप्पी। मेरे जीवन में जो आज तक नहीं आई, एकाएक इतना चुप। कहीं पागल न हो जाऊं। शायद ही यहाँ टिक सकूँ। हाँ, भला कैसे इनके बुढ़ापे में अपने जीवन को मिला दूँ। मेरा शोर तो जवान है, उमंगों भरी मेरी हर सांस है। मैं खुशी में नाचता हूँ। लेकिन ये ..., चुप बैठकर जीवन-दर्शन की बातें करेंगे, इनकी उमंग है दबी-दबी उत्साह नहीं आगे के लिए। यहाँ बात में बात निकलेगी और ये पीछे की ओर चले जाएंगे ..., अपनी बात मुझे सुनाएँगे, सुनाते रहेंगे, लेकिन मेरा शोर कौन सुनेगा ? मेरी उमंगें ठंड़ी पड़ जाएंगी। लगता है मैंने यहाँ आकर गलती की हैं। बुढ़ापे और उमड़ती जवानी के अंतर की खाई को पाटना आसान नहीं है। इसके लिए या तो मुझे बूढ़ा बनना होगा, या इन्हें जवान। मैं बूढ़ा नहीं बनूँगा किसी भी दशा में। मुझे घुट-घुट के नहीं मरना। मुझमें सन्यासी बनने की ललक नहीं। मैं अपनी उत्तेजना को संयम के बल पर शांत नहीं करना चाहता। मैं बहुत ऊँचे उठकर देखना चाहता हूँ... - कल्पना में इस सृष्टी का मूल।.. - उसने फिर करवट बदली - बाबा कह रहा था ईमानदारी की रोटी खाऊं, लेकिन यह क्या ईमानदारी है कि मैं अपनी सभी उमंगों को नष्ट कर दूँ ... कि मैं अपनी उफनती जवानी में इस बाबा - बुढिया की शांति का नीर डालकर इसे एकदम ठंड़ा कर दूँ। क्या उफान में आनंद नहीं ?मजदूरी करूँ, लेकिन शोर में रहूँ। बाप फेरी लगता है, मैं भी फेरी लगा लूँ, लेकिन ... लेकिन बाबा की बस्ती के ठंड़े शोर से हटकर अपने गर्म शोर के ही समीप रहूँ। ... अरे, हाँ मैं क्यों न अपने बाप, अपनी माँ, की घृणा को प्यार में बदलने का प्रयत्नं करू ? आखिर वह मेरे माँ-बाप हैं ? बाबा-बुढिया से मेरा क्या नाता ? ... हाँ, मुझे इनकी बस्ती से दूर जाना होगा ... नहीं तो एक दिन मैं भी इन्हीं की तरह ...
इन्हीं की तरह ...,इनकी उमंगें समय पर नहीं उठ पाई, इसीलिए अम्मा को अपनी उमंगें जवान दिखती हैं, उनका समुन्द्र उमड़ता दिखाई देता है। जबकि वे सब निरुत्साहित होकर कब की मर चुकी हैं। अब केवल अतृप्ति है न मिट सकने वाली, और प्रयत्न कर रहे हैं उसे बुझाने का मुझे अपने पास रखकर। मुझसे अपनी उमंगों की प्यास बुझाना चाहते हैं। ... ताकि..., ताकि मैं अपनी उफनती उमंगों के प्रवाह को इनकी ओर मोड़ दूँ - अतृप्त हो जाऊं... और मेरा बुढ़ापा भी इन जैसा अतृप्त हो, मुझे भी किसी जवान खून की जरूरत पड़े। ...नहीं-नहीं, मुझसे इनकी अतृप्ति मिटेगी नहीं।... बढ़ेगी। इन्हें चाहिए कि और कोई साधन खोजे अपनी बूढी उमंगों को संतुष्ट करने का - भगवान को बस याद करें।...
हाँ अब मैं अब सुबह होते ही, अरे सुबह की इंतजार क्यों, अभी चल देता हूँ। वापिस। मुझे अपने शोर में खोकर जीवन की नई राह को तलाशना है। बेशक मंगू न हो, छन्नो न हो... शराब न हो ... , लेकिन मेरे घर का शोर हो घृणा दूर हो जाए, अनादर दूर हो जाए। फिर क्या चाहिए, और कुछ नहीं। ...
- और वह उठ खड़़ा हुआ झट से। चुपचाप दरवाजा खोल कर चला गया। कोई जागा नहीं न साधूराम, न शांति। हवा का एक झोखा आया था, जो वातावरण को क्षण भर के लिए शीतल बना कर पुन: अपनी सृष्टि में लीन हो गया।
दोनों सुबह उठे। उठते ही चौंक पड़े। मोहन अपने बिस्तर पर नहीं था।
कहाँ गया ? - शांति ने पूछा।
क्या कहूँ ? - साधूराम को
समझ नहीं आया।
चला गया ? शायद ... ।
चला ही गया। मगर क्यों ?
हमारा भाग्य।
भाग्य ... ?
हाँ, भाग्य। शायद किसी सहारे का होना नहीं लिखा। दुर्भाग्यशाली हैं हम। कोई मौत नहीं बन सकता हमारा, बेशक हम कितना प्रयत्न करें। - शांति ने आद्र स्वर में कहा।
सतीश होता तो क्या होता...।
लेकिन होता तो न, हम ईश्वर की अभिशप्त कृतियाँ हैं।
- शांति रोने लगी। घर का वातावरण पुन: बोझिल हो गया था।