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बिखरे क्षण
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दिनचर्या (Dincharya) 4
ISBN: 81-901611-0-6


टन-टन-टन-टन....

दूर कहीं घंटाल ने सुबह के चार बजने की घोषणा की साधूराम और शान्ति बिस्तरों से उठ खड़े हुए। नित्य कर्म से निवृत होने में उन्हें आधा घंटा लग गया। साढ़े चार बजे के लगभग दोनों घर के पट बंद कर, भगवन का नाम लेते हुए मंदिर की ओर चल दिये। वातावरण अभी पूर्णतया:अन्धकारयुक्त था। आकाश में कहीं-कहीं तारे झिलमिला रहे थे। शीतल वायु वातावरण को ठंडा किये हुए थी। दोनों धीमी चाल चलते हुए मंदिर की ओर बढ़े जा रहे थे। मंदिर उनके घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर था। धीरे-धीरे चलते हुए दोनों लगभग आधे घंटे में मंदिर जा पहुँचे। मंदिर के ट खुल चुके थे। ईश्वर का गुणगान हो रहा था। भक्तजन ईश्वर-भजन में लीन थे। स्वर-से-स्वर मिला, ढोलक-मजीरे की ताल पर आरती हो रही थी। ईश्वर स्तुति की यह लयबद्ध शोर सबके मन को बाँधे था। भक्ति रस का पान करने में सभी लीन थे। वे दोनों भी ईश्वर की स्तुति करने लगे। उन्होंने ईश्वर की मूर्ति पर फूल चढ़ाए और शीश नवा कर पुजारी से तिलक लगवाया। और एक कोने में बैठकर भक्त-मंडली के स्वर के साथ अपना स्वर मिलाने लगे।

भजन समाप्त होने पर पुजारी ने रामचरितमानस का पाठ आरम्भ कर दिया। दोनों मन लगा कर प्रवचन सुनने लगे .......

पुजारी के प्रवचन सुनकर दोनों के मन का आवेग शांत हो गया। बीती रात क्या हुआ था, .... सब कुछ भूलकर वे ईश्वर को स्मरण कर रहे थे। प्रवचनों के उपरान्त आरती हुई और फिर भोग लगाया गया। प्रसाद ग्रहण कर दोनों वापिस घर की ओर चल पड़े। रह में चलते साधूराम ने शांति से कहा - "शांति। भगवान के घर जाकर हम सब कुछ भूल जाते हैं। भजन में लीन होकर हमें अपने अस्तित्व का भी ध्यान नहीं रहता। इस बाहर की दुनिया का शोर, यहाँ के दु:ख, यहाँ की विलासिताएँ हमें रंग-तरंग मोहमाया में फंसाये रहती है। सुख देखकर हम हँसते हैं.... , दु:ख पाकर हम आँसू बहाते हैं। तब हमारा निराशावादी स्वरूप हमें कुछ करने नहीं देता। हम स्वयं को हीन समझने लगते हैं, सुन्दर-असुंदर का भेद त्याग हम केवल उस वस्तु को "असुंदर" मानने लगते हैं। मगर भगवान के घर जाकर सदैव हमारे चित्त के आवेग को शांति मिलती है। हम तब आँसुओं की उष्णता को भूल जाते हैं। हम तब हम नहीं रहते, तब केवल सुन्दर अनुभूतियाँ रह जाती हैं, जिनका स्वाद हमें आलौकिक-आनंद प्रदान करता है - ऐसा देखकर शांति, यही मन करता है की सब कुछ त्याग कर भगवद-भजन में लीन हो जाऊं ...., क्या रखा है इस मोहमाया काम-क्रोध युक्त संसार में ....।"

शांति चुपचाप साधूराम की बात सुनती रहो। उसके कह चुकने के उपरांत उसने कुछ सोचकर कहा - देखिए प्रत्येक कार्य का अपना एक निश्चित समय होता है। भगवद-भजन में शांति मिलती है, यह निर्विवाद सत्य है। परन्तु ईश्वर यह तो नहीं कहता की संसार के अस्तित्व को, अपने स्वयं के अस्तित्व को भूलकर तुम आठों पहर मुझे ही स्मरण करो। यदि ऐसी उस परमपिता परमेश्वर की चाह होती तो वह इस सृष्टि का निर्माण ही क्यों करता ? ईश्वर ने जीवन की लीला रचाई है, इसके पीछे उसका यही स्वार्थ है की उसकी कलाकृतियाँ जीवन की वास्तिवकता का ज्ञान प्राप्त कर, उसकी मेहनत को सार्थक करें। भक्ति का अनुभव तो आत्मा को जन्म से ही होता है। क्योंकि आत्मा कोई वस्तु नहीं अपितु परमात्मा का ही अंश है। भक्ति और जीवन के मिलन से इस सृष्टि का निर्माण हुआ है। इसलिए हमारा कर्तव्य तो यह बनता है की हम जीवन के प्रत्येक रंग-रूप का स्वाद करें, उससे अनुभव प्राप्त करें और फिर अनेक रंगों का मिश्रण तैयार कर जीवन को इन्द्रधनुष के समान बनाने के लिए ईश्वर की भक्ति करें।

- फिर कुछ रूककर शान्ति कहने लगी - एक ओर चंचल मन, दूसरी ओर मनन-चिंतन वाली आत्मा, दोनों के मिश्रण से जीवन का निर्माण। जीवन की सार्थकता तो तभी है जब मन की चंचलता को वश में कर लिया जाए। मन के बल से इन्द्रियजय करें। इन्द्रियजय के लिए केवल भक्ति ही नहीं अनुभव भी आवश्यक है। और अनुभव आशा-निराशा दोनों के स्वरों को सुने बिना कैसे होगा। निराशा को देखे बिना भला इसका अनुभव कैसे करोगे ? हम कर्म के आराधक हैं। केवल भक्ति हमारे जीवन को सफल नहीं बना सकती।

शान्ति चुप हो गई, कुछ देर बाद साधूराम ने कहा - हाँ, शांति, कर्म और भक्ति के मिश्रण से ही जीवन की सार्थकता संभव है। दोनों में से किसी एक के अनुस्थित रहने पर जीवन एकांगी हो जाता है....।

घर की तंग गली आ गई थी। दोनों चुप हो गए। गली में से होकर घर आ पहुँचे। साधूराम आँगन में ही बैठ गया और शांति सीधा रसोईघर में चली गई। तभी ग्वाला आकर दूध दे गया। शांति ने चाय तैयार कर साधूराम को पुकारा। आँगन से उठाकर वह रसोईघर में चला आया। दोनों चाय पीने लगे।

नाश्ता समाप्त करने के उपरान्त साधूराम आँगन में बिछी खाट पर लेट गया और शांति उसके लिए रोटी तैयार करने लगी। लगभग पौन घंटे में खाना तैयार हो गया। रोटी का डिब्बा लेकर साधूराम दुकान को चल दिया। शांति अब अकेली थी। उसने अपना दोपहर का खाना एक ओर ढक कर रख दिया और घर की सफाई में लग गई।

सफाई के बाद शांति के पास कोई काम न रह जाता था। तब वह चुपचाप आँगन में बिछी खाट पर लेट जाती और कल्पनालोक में विचरती हुई अतीत की बातों को स्मरण किया करती। आँखें मूंदकर वह बीते दिनों को याद करती, सोचते-सोचते जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रहती। कभी-कभी बीते जीवन की घटनाओं से संबंधित मस्तिष्क पटल पर नए-नए चित्र बनाया करती थी - उसके बनाए चित्रों में कहीं हरियाली दिखाई पड़ती थी, कहीं मरुस्थल की रेत, कहीं आसूँ भरे बैठा दु:खी मनुष्य, तो कहीं प्यार भरा सुन्दर जीवन।

घर में इस समय उदासी छाई हुई थी। यह उदासी शांति को कभी अच्छी नहीं लगती। सदा उसका यही मन करता रहा है की आँगन में शोर हो, आस-पड़ोस में शोर हो घर-भर में शोर हो और वह उस शोर के बीच बैठकर शोर करने वालों से खूब बाते करें। ... मगर ऐसा कभी न होता। बरसों से चली आ रही उदासी अभी तक आँगन में डेरा डाले थी। और इसी कारण शांति अपने एकांत क्षणों में दु:खमयी कल्पनाएँ किया करती थी ....

... अब आँगन सूना है। चारों ओर उदासी की धुंध छाई हुई है। चाहकर भी मैं इस धुंध को साफ़ नहीं कर पाती। प्रयत्न करती हूँ, मगर असफलता मिलती है। छटने के बजाए धुंध और गहरी हो जाती है। मुख से तो सभी को कहती हूँ - जीवन है, आशा मत त्यागो सदा उल्लास को गले लगाए रखो - परन्तु मैं स्वयं कभी इन शब्दों का पालन नहीं कर पाती। निराशा के हाथ बड़े प्रबल हैं जो वह आशा की किरणें हमसे छीन लेती है और हमें सदा भयानक रूप से इस बात का एहसास करवाती है कि हमारा जीवन अंधकारमय है। हमें सदा रोना होगा। रोते बिलखते ही मर जाना होगा। अब कभी भी कोई चुप कराने नहीं आएगा। और यही होता है .... मैं रोने लगती हूँ, रोती रहती हूँ, मगर मुझे कोई ढाढ़स नहीं बंधाता। सभी घूरते रहते हैं.... हाँ , सभी घूरते हैं। इन दरवाजों को देखो, खिड़की-दीवारों को देखो, सभी घूर रहे हैं। सभी मूक खड़े मुझे रोता देख रहे हैं। मेरी उदासी का तमाशा देखना, अब इनका दैनिक कार्य बन गया है। कोई मुझसे बात नहीं करता, कोई मेरे दिल का हाल जानने की चेष्टा नहीं करता।

..... कभी-कभी गली का आवारा-कुत्ता भीतर आ जाता है। मुझे रोता देखता है, तो अपनी आदत भूलकर - बिना कुछ सूँघे वापिस बाहर चला जाता है। उदासी से कितना डरते हैं इस सृष्टि के जीव। दु:खमयी आँसू किसी को भी अच्छे नहीं लगते - लेकिन मुझे रोना पड़ता है। दिनभर उदास दृष्टि से अपने चारों और छाई चुप्पी को देखती रहती हूँ... अपने भाग्य को कोसती हूँ.... सतीश को याद किया करती हूँ .....।

“....वह घर होता, बहू होती, पोते-पोतियाँ होते। वे हँसते, हम स्वयं हंस पड़ते। आँगन में खुशियाँ छाई रहती, फूलों की वर्षा होती। आँसूओं का रोप्प केवल उन्हें दु:खी पाकर देखने को मिलता। अपने कष्ट कि हमें परवाह ही न होती। आठों पहर अपने बच्चों के बीच बैठकर हँसते-गाते-नाचते। प्रेम-प्यार ह्रदय में उमड़े रहता,मगर कुछ भी नहीं। केवल स्वप्न, कल्पना..., केवल धुंध में उपस्थित शून्य। .... कुछ नजर नहीं आता।

शांति के मन में एक टीस उठी। सतीश को देखने की उसकी चाह इतनी तीव्र हुई कि वह तड़पने लगी। जोर से उसने एक सिसकारी भरी। सतीश को कहीं न पाकर उसकी इच्छा जोर-जोर से रोने कि हुई, मगर वह रो न सकी। उसका मन विलाप करने लगा था - हाय। वे दिन कितने अच्छे थे। आंतरिक सुख तो था। .... पर तब तो यही मान बैठी थी कि प्यार कहीं नहीं है। सुमिता नए जमाने की थी, मगर तब भी मान..., हाँ, मान तो करती थी। हमने गलती की। हमने स्वयं को ऊँचा मान लिया था, मगर उनका कर्तव्य भी तो था हमारी थाह लेना। पर अब क्या है ? ... कुछ भी तो नहीं। वही दिन अपने इर्द-गिर्द घुमते नजर आते हैं। वे दिन कितने अच्छे थे। स्वयं हँसते न थे, लेकिन हँसते लोगों कि भीड़ में तो थे। मगर तब तो यूँ लगता था कि हँसते लोगों के बीच चुप बैठे हम दोनों केवल एक तमाशा हैं। तब बुरा लगता था, मगर अब। प्यार दिखावटी ही सही, लेकिन था तो। तब कुछ भी रास नहीं आता था, लेकिन अब उसी के वर्तमान बन जाने कि कल्पना करते हैं......

- और तब शांति अपने अतीत के उन दिनों में जा पहुँची जब वह पहली और अंतिम बार दिल्ली गई थी। उसे यूँ महसूस हो रहा था कि वे ही क्षण उसके वर्तमान का रूप धरे आ गए हैं...

... वह रसोईघर में थी। गैस के चूल्हे पर सब्जी बन रही थी। उसी पर ध्यान केन्द्रित था। सुमिता ड्राईंग-रूम में बैठी अपनी सखियों कि प्रतीक्षा कर रही थी। नौकर बाजार सामान लेने गया हुआ था। इस समय सुबह के दस बज रहे थे। सतीश अपने ऑफिस जा चुका था और साधूराम घूमने के लिए चला गया था। यहाँ उसे और तो कोई काम नहीं था।

तभी बहुत धीमा-सा शोर हुआ। बहुत-सी स्त्रियों कि मिली-जुली हँसी का स्वर सुनकर शांति समझ गई कि सुमिता कि सहेलियाँ आ गई हैं। उनके चेहरे देखने कि उत्सुकता ने उसे रसोईघर के दरवाजे से झाँक कर ड्राइंग-रूम में देखने को विवश कर दिया। ड्राइंग-रूम में लगभग आठ-नौ सुमिता कि हमउम्र स्त्रियाँ बैठी चुहलबाजी कर रही थी।

शांति को झाँककर यूँ देखते हुए सुमिता कि एक सहेली ने देख लिया। शांति वहाँ से हट गई। तभी उसने कहते सुना- सुना है सुमिता, तेरे सास-ससुर आए हुए हैं ?”

हाँ....।

बूढ़े होंगे.....। - साथ ही शांति को किसी की हँसी का स्वर सुनाई दिया।

नहीं, कल पैदा हुए हैं !” - सुमिता के उत्तर पर हँसी का फौव्वारा फूट पड़ा।

उनसे मिलाओ हमें। - एक का आग्रहपूर्ण स्वर सुनाई पड़ा शांति को। ससुर से तो नहीं, सास से मिला सकती हूँ....। - सुमिता ने कहा।

क्यों ? क्या ससुरजी बहुत सुन्दर हैं ?” - कहने वाली कि हँसी और फिर सबकी सम्मिलित हँसी सुनकर शांति को कुछ बुरा लगा। मन में उसने कहा - सभी बदतमीज हैं।

अरे छोड़ों भी, वह औरतों से बात नहीं करते। - तभी उसे सुमिता का स्वर सुनाई पड़ा।

ओह !..... बड़े दकियानूसी विचारों के हैं। - किसी ने कहा, सुनकर शांति को क्रोध आ गया। लेकिन वह कुछ सोच न सकी, क्योंकि तभी उसे सुमिता का स्वर सुनाई दिया था – “माँ जी से मिलाऊँ ?”

“- हाँ-हाँ, क्यों नहीं ?” - उसकी कुछ सखियों ने एक साथ कहा। इस पर सुमिता ने रसोईघर कि ओर मुख करके आवाज दी – माँ...जी।

शांति ने पुकार सुनी। उसकी इच्छा न थी। वह सोच रही थी, जो उसकी पीठ पर इतनी बदतमीजी कि बातें करती हैं, वे उसके मुख पर न जाने कैसी बातें करें। लेकिन सुमिता के दूसरी बार पुकारने पर वह रुक न सकी। शांति को देखकर सभी खड़ी हो गई और नमस्ते माँ जी। कहती हुई उसका हाथ जोड़ कर स्वागत करने लगी। सुमिता ने उसका सबसे परिचय कराया

माँ जी, ये रश्मि है। इसके पति एक कंपनी में मैनेजर हैं। - ये मालती है। इसके पति आर्मी में मेजर हैं। ...... - ये निर्मल है। इसके पति सतीश के साथ ही काम करते हैं। - सुमिता के मुख से पति का नाम सुनकर शांति चौंक पड़ी। उसने गर्दन उठाकर सुमिता कि ओर देखा। कुछ कहने के लिए मुख खोला ही कि उसकी सखियों कि उपस्थिति का ध्यान कर चुप हो गई।सुमिता उसके मनोभावों को न ताड़ सकी। उसने एक-एक करके शांति को अपनी प्रत्येक सखी का परिचय दिया।सुमिता ने उसे वहीँ बिठा लिया। तभी सुमिता कि एक सखी ने उससे पूछा- अच्छा, माँ जी, आप बनाना क्या-क्या जानती हैं ?”

उसके इस प्रश्न को सुनकर उसके साथ बैठी एक सखी ने उसकी चुटकी ली। इस पर वह चिहंक कर उठ गई और शांति के साथ बैठी हुई बोली – “ ये निर्मल बहुत खराब है , माँ जी, हाँ तो आपने बताया नहीं ..... ?”

क्या ?” ....- शांति कुछ घबरा गई थी।

आप बना क्या-क्या सकती हैं ?” - उसने फिर पूछा।

मैं...। - शांति घबरा गई थी, जल्दी से उसके मुख से निकल गया..... - खाना...!”

उसके इस उत्तर पर सभी खिलखिला कर हँसने लगी। शांति को आश्चर्य हुआ। सभी के चेहरों को देखने लगी। उसे उनके हँसने का तात्पर्य समझ नहीं आया। उसने अनुमान लगाया कि वे सभी उसकी खिल्ली उड़ा रहे हैं। शांति को यह बुरा लगा।

कुछ क्षणोंपरांत उसी सखी ने कहा –अच्छा, चाय बना लेती हैं ?”

ऐ ....!” - सुमिता ने टोका – “माँ जी बहुत बढ़िया चाय बनाती हैं।

सच ....!” - उसने खुश होकर कहा- “तो फिर हो जाए एक-एक कप।

इसपर शांति ने सुमिता की ओर देखा। तब सुमिता ने कहा – “पिलाईये न, माँ जी।

शांति उठकर रसोईघर में चली आई। चाय का पानी गैस पर चढ़ा कर वह जलती नीली-पीली आग को देखने लगी। अब वह इससे काम लेना सीख गई थी। पहले दिन उसे गैस देखकर अचम्भा हुआ था। उसने ऐसी वस्तु पहले कभी नहीं देखी थी। पहले-पहल उसके पास चूल्हा था, फिर साधूराम स्टोव ले आया। मगर ऐसी वस्तु भी होगी, उसने सुना भी न था। शांति का समाजिक-घेरा अत्यंत संकुचित रहा है। वह एक कुशल गृहणी थी। घर से बाहर वह केवल मंदिरके समय या किसी पड़ोसी के सुख-दु:ख का समाचार सुनकर ही निकलती थी। व्यर्थ में इधर-उधर आना-जाना उसे न भाता था। आज सुमिता कि इन चुलबुली सखियों से मिलकर उसे आश्चर्य हो रहा था। उसने अपने जीवनकाल में ऐसी प्रकृति की औरतें नहीं देखी थी। नारी को इतना स्वतन्त्र देखकर वह अपने समय को याद कर रही थी। गैस कि जलती अग्नि को देखकर वह सोच रही थी – जिस प्रकार अग्नि के स्वरूप में परिवर्तन आ गया है उसी प्रकार नारी का स्वाभाव भी परिवर्तित हो गया है। गैस से आग जलाना कितना सरल है। इस नारी को देखकर मर्द के तन-मन में आग लग जाना भी कितना सरल हो गया है। हमारे शरीर को देखने के लिए हमारे अपने मर्द तरसते थे और ये खुले आम अपने शरीर का प्रदर्शन करती फिरती हैं। इनकी सभ्यता और आदिवासी सभ्यता में अब अंतर केवल पैसे का ही रह गया है। - शांति और अधिक न सोच सकी। चाय तैयार हो गई थी। केतली में चाय डालकर और कप-प्लेट ट्रे में रखकर वह बैठक में आ गई।

चाय समाप्त करने के उपरांत वे सब इधर-उधर की फैशन की, फिल्मों की और व्यर्थनीय बातें करने लगी। तभी बाहर से साधूराम के आने का स्वर हुआ। सुमिता ने फुसफुसाकर कर सबको सजग कर दिया – बाबू जी आ रहे हैं।

सभी एकदम चुप हो गई। साधूराम ने भीतर प्रवेश किया तो वे आदरभाव लिए खड़ी हो गई। साधूराम उन्हें देखकर ठिठक गया। सबने उसे नमस्ते की। उनके अभिवादन का उत्तर देकर वह भीतर कमरे में चला गया। सब बैठ गई। सबकी आँखों में उत्सुकता थी। सभी कुछ पूछना चाहती थी। एक ने पूछा – तुम्हारे ससुर क्या फ़ौज में थे....?”

नहीं।.... क्यों ?” - सुमिता को आश्चर्य हुआ।

फिर उनकी बाजू....?” - सखी ने शंका का कारण बताया। शांति की उपस्थिति में सुमिता को अपनी सखी का यह प्रश्न उचित न लगा। उसने संक्षेप में बताते हुए कहा – बचपन में गोली लग गई थी....। - साथ ही उसने आँखों के इशारे से इस विषय में और कुछ पूछने के लिए अपनी सखी को रोक दिया। तब एक दूसरी सखी ने बात का प्रवाह बदल दिया। उसने शांति से पूछा – माँ जी। आपकी शादी किस उम्र में हुई थी ?”

मेरी शादी.......?” - शांति को उसके अर्थहीन प्रश्न पर आश्चर्य हुआ।

जी, आपकी.... ?”

बीस बरस की उम्र में...।

कमाल है, बड़ी देर में हुई। - उसने आश्चर्य मिश्रित भावों से कहा।

देर में...। - शांति को भी आश्चर्य हुआ।

हाँ, आपके समय में तो शादी बहुत छोटी उम्र में हो जाती थी। मेरी नानी की शादी चार बरस

की उम्र में हुई थी। - उसने कहा। सुनकर सभी हँसने लगी।

सभी की थोड़े होती थी। - शांति ने उत्तर दिया। उसने फिर कुछ न पूछा। वे सभी फिर ताश खेलने में मग्न हो गई।

वे सब चली गई तो शांति ने सुमिता से कहा – तुम्हारी सखियाँ बहुत बोलती हैं।

माँ जी....। सभी मजाक ही तो कर रही थी। - सुमिता ने कहा।

तभी तो कह रही हूँ। तीन घंटे बैठकर ऊँट-पटांग बातें करती रहीं, क्या घर पर इन्हें कोई काम नहीं होता ?”

सारा काम समाप्त कर ही घूमने निकलती हैं।

इतनी जल्दी सारा काम भला कैसे कर लेती हैं ?” - शांति ने अविश्वास भरे भावों से कहा।

वाह, माँ जी। छोटे से घर में काम होता ही कितना है। सुबह उठकर पति व बच्चों को तैयार कर देती हैं। बस काम ख़त्म। कपड़े धोबी धोता है, सफाई भंगी करता है, खाना नौकर पकता है, बच्चों को आया संभालती है। इनके पास सिर्फ ताश खेलने व बातें करने का काम है।

सभी आरामपरस्त हैं।”- शांति ने कहा।

जब पैसा है फिर ये छोटे-मोटे काम करके अपना समय बर्बाद क्यों करें ?”

घर के काम व्यर्थ के होते हैं ?” - शांति को सुमिता के विचार सुनकर आश्चर्य हो रहा था।

जो काम कुछ पैसा देकर दूसरों से करवाए जा सकें, वे व्यर्थ के ही तो हुए। उन्हें खुद करना, समय नष्ट करना ही तो होगा।

और बेटी, जो काम स्वयं किया जा सके, उसके लिए पैसा खर्चना भी तो मूर्खता है। मुझे तो ऐसा जीवन बहुत नीरस लगे।” - शांति ने अपने विचार प्रकट किये।

आपको शुरू से ही काम करने की आदत है न इसीलिए। ये सभी मुँह में सोने के चम्मच लेकर पली हैं। इनके लिए घूमना, फैशन, बातें करना ही काम है.....

तुम भी ऐसी ही हो.....।”- सहजभाव से शांति ने कहा।

आदत है, माँ जी, ऐसे रहना ही अच्छा लगता है। - सुमिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।

तब शांति ने कोई और बात नहीं की।

...... शांति ने देखा, सुमिता भी नित्य दस बजे के लगभग तैयार होकर घूमने निकल जाती है। शांति को उसका नियमित रूप से इस तरह जाना अच्छा न लगता था। वह मन में सोचती थी कि उसे अपने सास-ससुर की तनिक भी परवाह नहीं, तभी तो उनसे बेखबर रह अपने दैनिक कार्यों में रत रहती है। सुमिता का वही दिन घर में बीतता, जिस दिन उसकी सखियों ने आना होता था। एक-दूसरे के घर आने-जाने का उन्होंने एक सम्मिलित-क्रम बना रखा था। सुमिता के घर आने का नम्बर हर दस दिन बाद पड़ता था।

वे आई तो शांति ने देखा की उनके समूह में इस बार दो अधेड़ उम्र की स्त्रियां भी हैं। उन्होंने भी अपने अन्य सखियों की भांति बनाव-श्रृंगार कर रखा था। दोनों का शायद यही प्रयत्न था की वे अपनी वास्तविक अवस्था से कम की लगें।लेकिन शांति ने उनके शरीर के माँस को देखकर यह अनुमान लगा लिया की दोनों चालीस वर्ष से ऊपर की हैं।

सुमिता ने उनका परिचय शांति से कराया। शांति ने जब स्वयं को उन दोनों के मुख से माँ जी कहते सुना तो बोली – “तुम मुझे माँ जी क्यों कहती हो ?”

फिर आपको क्या सम्बोधन दूँ ?” - एक ने अपनी वाणी को अत्यंत मधुर बनाते हुए पूछा।

कमाल है। तुम मुझसे पाँच-छ: बरस छोटी हो, लेकिन फिर भी मुझे माँ जी कहती हो।

पाँच-छ: बरस छोटी। - उसने आश्चर्य प्रकट किया – “यह कैसे हो सकता है ? आपकी उम्र कितनी है ?”

पचास बरस।” - शांति ने उत्तर दिया।

और मेरी उम्र तो बत्तीस साल है, माँ जी....।

शांति समझ गई की वह झूठ बोल रही है। लेकिन उसने अपने भावों को प्रकट न किया, बोली – “तब भी मैं तुम्हारी माँ के समान कैसे हुई ?”

वाह ! हो कैसे नहीं सकती। आपके जमाने में तो चौदह बरस की लड़की बच्चा जन देती थी।

उसकी बात पर सभी खिलखिला कर हंसने लगी। शांति को यह बुरा लगा। लेकिन उसने प्रकट कुछ न किया। तभी दूसरी अधेड़ा ने उसका ध्यान अपनी और आकर्षित करते हुए कहा – “माँ जी...। यदि आपको कोई ऐतराज न हो तो मैं सिगरेट पी लूँ ?”

शांति उसका प्रश्न सुनकर चौंकी। उन्ही भावों से उसे देखने लगी। उसके हाथ में सिगरेट की डिबिया थी।

सिगरेट.....। - शांति को जैसे विश्वास न आ रहा था। उसने अपने समय में केवल निम्न वर्गीय औरतों को धूम्रपान करते देखा था। उसने कभी सोचा भी न था कि उच्चवर्गीय स्त्रियाँ भी धूम्रपान करती होंगी। वह बोली – “अरे..। औरतें भी कभी सिगरेट पीती हैं ?”

तो क्या हुआ , माँ जी, आपके गाँवों में तो सभी पीती हैं।

सभी नहीं, सिर्फ छोटी जाति कि औरतें पीती हैं। वह भी केवल भूख दबाने के लिए। खाने कि रोटी न हो तो क्या करें ? तुम लोगों को किस बात कि कमी है ?” - शांति का तीखा स्वर सुनकर सारी मंडली स्तब्ध रह गई। विशेषकर वह अधेड़ा। उसने शांति की बात का बुरा मान लिया। वह और अधिक वहाँ नहीं बैठी। आवश्यक-कार्य का बहाना बनाकर वह चलीं गईं। सुमिता ने उसे रोकने का प्रयत्न किया, लेकिन व्यर्थ। उसके जाने के उपरांत शांति ने देखा कि सभी एक-दूसरी से फुसफुसा बातें करने लगी हैं। उसे तब महसूस हुआ कि वह अवश्य ही इनमें विशेष महत्व रखती थी।

शांति बैठक से उठकर भीतर कमरे में आ गई। तभी उसने देखा कि सुमिता भी उसके पीछे चली आई है। सुमिता ने उससे कहा – माँ जी।.... आपने बहुत बुरा किया ?”

क्या?” - शांति ने देखा सुमिता के मुख पर नाराजगी के भाव हैं।

आपने मिसेज अरोड़ा का अनादर किया।

मैंने कोई अनुचित बात तो नहीं कि थी। - शांति ने अपनी सफाई में कहा।

लेकिन वह तो बुरा मान गई न।

इससे क्या होता है ?”

बहुत कुछ होता है, माँ जी। उसके पति सतीश के ऑफिसर हैं।

- शांति यह सुनकर कुछ न बोली। तभी सुमिता कि एक सखी वहाँ आ गई। आते ही उसने कहा – “आप दोनों यहाँ क्या गुफ्तगू करने लगी। बाहर हम बैठी बोर हो रही हैं।

मैं माँ जी को कह रही थी कि मिसेज अरोड़ा बुरा मान गई हैं। उन्हें ऐसी बात नहीं करनी थी।

अरे। इससे क्या होता है। मैं उन्हें समझा दूँगी कि माँ जी पुराने विचारों की हैं। उनकी बात का बुरा मानना ठीक नहीं। इन्होंने कौन-सा सदा यहाँ रहना है।

-उस सखी का अंतिम वाक्य सुनकर शांति चौंकी। सोचने लगी – “अरे। हम तो यहाँ सदा के लिए आए हैं। और ये सब......। शायद सुमिता ने ऐसा कहा होगा...।”- शांति और कुछ न सोच सकी। सुमिता ने उसे बाहर आने को कहा था।

बाहर चुप्पी टूट चुकी थी। सभी फिर से बातों में मग्न हो गई थी। मिसेज अरोड़ा चली गई ? क्यों गई ? क्या होगा ? - कोई भी इस विषय पर विचार नहीं कर रहा था। बातें धाराप्रवाह आगे बढ़ती जा रही थी, यूं लगता था जैसे मिसेज अरोड़ा आई ही नहीं थी।

दोपहर एक बजे के लगभग वे सब विदा लें गई। शांति ने देखा कि सुमिता कुछ खिन्न है।शांति ने उससे स्नेहयुक्त स्वर में कहा – क्या बात है, सुमिता। तुम चुप-चुप सी क्यों हो ?”

माँ जी। आपने मिसेज अरोड़ा के साथ.....

उसकी बात बीच में काटकर शांति ने कहा –आगे से नहीं कहूँगी। मुझे क्या पता था कि वह बुरा मान जाएगी। चाहे जिसके मन में जो आए वही करे, मैं चुप रहूँगी, ठीक है न ?”

आप, माँ जी, आगे से भीतर ही रहा करें, तो ठीक रहेगा। आपको मेरी सखियों कि आदतें अच्छी नहीं लगेगी.... , आपने फिर कभी किसी को कुछ कह दिया तो व्यर्थ में मेरी और सतीश कि बेइज्जती होगी!”

शांति ने सुमिता की बात सुनी। सुनकर उसे आघात लगा। मगर कुछ कह न सकी। हाँ, उसकी आँखें भर आई थी। लेकिन इसका सुमिता को पता न लगा। वह अपने कमरे में जा चुकी थी। शांति भी कुछ देर अकेली ड्राइंग-रूम में बैठी रही, फिर मन न लगा तो साधूराम के पास आकर बैठ गई।

सुमिता की सखियाँ फिर आई। शांति ने सुमिता के आदेश का पालन किया। वह साधूराम के पास बैठी रही। साधूराम रामायण का पाठ कर रहा था। उसनेएक नजर उठाकर शांति की ओर देखा और फिर पुन: पाठ में लीन हो गई। शांति का ध्यान बैठक में लगा था, वह वहां हो रही प्रत्येक बात को सुनने का प्रयत्न कर रही थी।

हँसी-मजाक के बीच एकाएक एक सखी ने सुमिता से प्रश्न किया – “सुमिता। माँ जी कहाँ हैं ?”

- “भीतर हैं।

- “उन्हें बुलाओ।

- “वह बाबू जी के पास बैठी हैं।

- “तो क्या हुआ? बुलाओ।

- “अरे बाबा। वह नहीं आएंगी।

- “क्यों नहीं आएंगी ?”

- “आज उनका व्रत है।” - सुमिता ने अपनी सखी को टालने का प्रयत्न किया।

- “व्रत है तो क्या हुआ ? बुलाओ।

- “वह व्रत के दिन किसी से नहीं बोलती।

- “बोलती न हों, लेकिन चाय तो पिला ही देंगी ?”

- “बिल्कुल नहीं!” सुमिता ने हँसने का प्रयत्न किया, साथ ही कहा – “वह चुपचाप आपने कमरे में बैठी माला जपती रहती हैं।

बहुत पहुँची हुई भक्त हैं।

हाँ, बचपन से ही सप्ताह में एक बार ऐसा व्रत रखती हैं।

इसके बाद उसकी सखी ने कोई प्रतिवाद न किया। सभी अपने खेल में मशगूल हो गई। शांति, जो वर्ष में केवल एक बार, केवल करवा-चौथ के दिन व्रत रखती थी, अपनी बहू की मन गड़ंत कथा सुनकर क्षुभित हो उठी। उसकी आँखों से आँसू बह निकले। लेकिन झट से उन्हें पोंछकर वह गुसलखाने में मुँह धोने चली गई। अपनी मानसिक-दशा व सुमिता के व्यवहार के विषय में वह साधूराम को कुछ बताना नहीं चाहती थी।

***

... घर में पार्टी थी। शांति को सुमिता के साथ काम में हाथ बटाना पड़ रहा था। शांति को उस दिन कुछ-कुछ अच्छा लग रहा था। विवाह जैसी रौनक थी। और इस रौनक को देखकर उसे अपने विवाह की रौनक याद आ रही थी लेकिन वह इतनी फुरसत में नहीं थी की एकांत में बैठकर उस दिन को स्मरण कर पाती।

शाम हुई। सुमिता ने अपनी बढ़िया पोशाक पहन ली। शांति को किसी ने कपड़े बदल लेने को नहीं कहा। शन्ति रसोईघर में ही बैठी थी। तभी सुमिता उसके पास आई। वह इस समय दुल्हन की भांति सजी हुई थी। शांति मुग्ध होकर अपनी पुत्र वधु को देखने लगी। तभी सुमिता ने उसकी तन्द्रा भंग की – माँ जी...

क्या ?”..... - शांति ने प्रश्नवाचक मुद्रा में उसकी ओर देखा।

माँ जी....- सुमिता की मुख-मुद्रा से ऐसे लग रहा था की जैसे वह कुछ कहना चाह रही हो लेकिन संकोचवश कुछ कह न पा रही हो। न जाने ऐसी क्या बात थी। शांति एकटक अर्थपूर्ण मुद्रा में उसकी ओर देख रही थी। सुमिता ने आखिर अपनी बात कह ही दी.... – “आप भीतर ही रहिएगा। जिस किसी चीज की जरुरत होगी, बैरा स्वयं आकर ले जाएगा।” - शांति ने सुमिता की बात सुनी। उसे आघात लगा। वह तो पार्टी में मिलने वाले आनंद की कल्पना कर रही थी, लेकिन सुमिता ने उसकी कल्पना को बिखेर कर रख दिया। अपनी भावनाओं को दबाकर शांति ने बुझे मन से कह दिया – अच्छा।

सुमिता ने अपने मायके से दो बैरे बुला लिए थे। घर में जब कभी पार्टी होती थी, सुमिता उन्हें बुला लिया करती थी।

सुमिता बाहर चली गई। मेहमानों का आगमन आरम्भ हो गया था। वह उनके स्वागत में लग गई थी। शांति सोच रही थी – “पार्टी में सुमिता के माता-पिता भी आए होंगे। वे ऊँचे लोग हैं न, पार्टियाँ देते हैं..... , इसीलिए सम्मिलित हो सकते हैं। हम गंवार भला पार्टी में बैठना क्या जाने। सुमिता के माता-पिता हमसे मिलेंगे भी नहीं नहीं ? क्या पड़ी है उन्हें। हमसे उनका सम्बन्ध ही क्या है? वे सतीश के सास-ससुर हैं। हमसे तो उनका समधियों-सा समझौता भी नहीं हुआ था ....., सुमिता सतीश की पसंद थी। हम तो नाम के समधी थे...., खैर......, अब बीती बातें याद करने का क्या फायदा.....।

बड़े कमरें में पार्टी हो रही थी और शांति रसोईघर में बैठी पार्टी के कहकहे सुन रही थी। बैरा बार-बार रसोईघर में आता। शांति की ओर देखे बिना सामान उठा कर बड़े कमरें में चला जाता। वह उन्हें अपने से अधिक भाग्यशाली समझ रही थी। यदि बैरा कोने में बैठी शांति को देख भी लेता, तो वह सोचती वह उसे हेयदृष्टि से देख रहा है। उसे अपने से भी छोटा समझता है। बैरा कभी मुस्कुरा रहा होता तो सोचती, “शायद वह सोच रहा है साहब की माँ और रसोई का कोना। - शांति उब गई। उसका मन अपने कमरे में जाने का हुआ। एक ही पग आगे बढ़ा कर वह रुक गई। अपने कमरे में जाने के लिए उसे बड़े कमरे से होकर जाना पड़ता, और बड़े कमरे में पार्टी हो रही थी। सुमिता उसे वहां आने से रोक गई थी। फिर क्या करे वह? क्या तेजी से अपने कमरे की ओर चली जाए? उसने अपने कपड़ो की ओर देखा। वह भी मैले थे। कोई उसे इन कपड़ों में देख लेगा तो सतीश की बेइज्जती होगी। हो सकता है सुमिता की माँ उसे देख ले। वह औपचारिकता निभाने के लिए उसे पुकारेगी। तो क्या होगा? - मन मसोस कर शांति को रसोईघर में ही बैठे रहना पड़ा।

रात्रि के बारह बजे तक पार्टी चलती रही। फिर धीरे-धीरे मेहमान जाने लगे। सबसे विदा लेकर सुमिता रसोईघर में चली आई। उसने शांति को वहाँ गुमसुम बैठे देखा तो बोली – अरे, माँ जी, आप अभी तक यहीं बैठी हैं ?”

तुम मना जो कर गई थी। - शांति ने धीमे-स्वर में कहा।

मगर मैंने आपको यहीं बैठे रहने को थोड़े ही कहा था। अपने खाना खाया की नहीं ?”

- “नहीं......।

- “नहीं......। ये अपने क्या किया ? अभी तक भूखी बैठी हैं।

- सुमिता शांति के समीप चली आई। तब शांति को उसके मुख से थोड़ी-सी शराब की गंध सूँघने को मिली। शराब की गंध वह पहचानती थी। बचपन में उसने पिता को अक्सर शराब पीते देखे था। तब उसके पिता के मुख से ऐसी ही गंध आती थी। .... लेकिन शांति इस विषय में सुमिता से कुछ न कह सकी। चुपचाप सुमिता की ओर देखती रही, जो जल्दी-जल्दी उसके लिए एक थाली में खाना लगा रही थी।..... शांति को थाली थमाते हुए सुमिता ने कहा – “ये लीजिए। और जल्दी खाइए। सतीश को पता लग गया तो मुझ पर गुस्सा होगा।

तभी शांति को जैसे सुमिता से कुछ कहना स्मरण हो आया। ग्रास मुँह में डालते हुए उसने कहा – सुमिता। एक बात कहूँ ?”

- “कहिए ..... ।

तुम सतीश को नाम लेकर क्यों पुकारती हो ?”

- “तो क्या कहकर पुकारा करूँ ? ” - सुमिता ने मुस्कुराते हुए पूछा।

- “वह तुम्हारा पति है.....।

- “तो फिर.....।

पति को नाम लेकर नहीं पुकारना चाहिए....।

लेकिन पुकारें कैसे ? ए सुनना जी। - न, माँ जी। मुझे यूं पुकारना अच्छा नहीं लगता- सुमिता धीमें से हँस दी।

अब तुम्हे क्या कहूँ, बड़े बुजुर्ग...। शांति की बात बीच में ही काटकर सुमिता ने कहा – जरूरी नहीं कि बड़ों की सब बातें मानी जाएं।.... अच्छा, माँ जी, आप जल्दी से खाना खाईए। मैं जाती हूँ।

सुमिता रसोईघर से निकलकर अपने कमरे की ओर चली गई। शांति कुछ क्षण तक यूं ही बैठी कुछ सोचती रही, फिर खाने का ध्यान आया तो धीरे-धीरे खाने लगी।

***

कई बार सुमिता की सखियाँ आई। कितनी ही पार्टियाँ बीत गई। घर में भी। घर से बाहर भी। शांति पुन: न तो सखियों से मिली और न ही कभी उसे किसी पार्टी में शामिल होने का अवसर दिया गया। साधूराम की भी यही दशा थी। दोनों वहाँ रहकर भी सबके लिए अनुपस्थित थे। लेकिन तब भी दोनों एक-दूसरे से अपनी-अपनी मनोदशा छिपाने का प्रयत्न कर रहे थे। तीन महीने बीत गए। आखिरकार एक दिन उनकी अपनी-अपनी मनोदशा का भेद एक-दूसरे के सम्मुख खुल गया। उस दिन ....

रसोईघर से निकलकर शांति अपने कमरे में आई तो देखा की साधूराम अभी तक जाग रहा है। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। वह अक्सर नौ बजे सो जाता था, जबकि आज रात्रि के साढ़े बारह बज रहे थे। शांति ने उससे पूछा – “आप अभी तक जाग रहे हैं ?”

शोर-शराबे में भला नींद कहाँ आती है। - साधूराम ने कहा। वह आज गम्भीर था।

पार्टी तो कब की समाप्त हो गई, अब तो कोई शोर नहीं....।

शांति। मन का चैन समाप्त हो जाए, तो हर समय चारों ओर शोर मचता प्रतीत होता है।

क्यों ? क्या हुआ ?” - शांति को अपने पति के शब्दों में अपने भाव ही छिपे दिखाई पड़े।

क्या कहूँ, शांति। तुम्हें क्या नहीं मालूम ? मुझे तो अपने पुत्र का रहन-सहन रास नहीं आया। हमने इस शोर-शराबे से कटकर अपना जीवन बिताया है, यहाँ रहकर एकाएक इतना शोर सुना की तंग आ गया हूँ। क्या ये जिन्दगी है, शांति, हरदम शोर ? - कभी पार्टी हो रही है, कभी नाच, कभी क्या- कभी क्या। पता नहीं ये लोग आदमी हैं या जानवर...।

शांति कुछ न बोली। चुपचाप अपने पति की बात सुन रही थी। साधुराम कह रहा था – “ इंसान शांति की पुकार करता है, और एक ये लोग हैं, जिन्हें शोर से प्यार है। दिनभर मशीनों का शोर, दुनिया भर के झगड़ों का शोर सुनकर भी, एकांत के दो-चार क्षणों को भी ये लोग शोर में बिता देते हैं। न जाने इनके मस्तिष्क को चैन कैसे मिलता है। इस नई सभ्यता के ये वासी कैसे हैं ? मैं तो यहाँ आकर मस्तिष्क को निरंतर असंतुलित होता जा रहा प्रतीत कर रहा हूँ......।” - साधूराम चुप हो गया। शांति ने उसकी सारी बात सुनी थी। वह चुप होकर सोच रही थी – “शांति-चैन-सभ्यता-जीवन। आज के ये नायक शायद शोर में शांति की तलाश कर रहे हैं। वह वहशीपन में सभ्यता को खोज रहें हैं। कैसे उछल-उछल कर नाचते हैं। दरवाजे की झिरी से झाँक कर देखा था तो डर गई थी की कहीं ये पागल तो नहीं हो गए, कुछ समझ में नहीं आती इनकी ये सभ्यता। प्रत्येक तत्व का रूप परिवर्तित हो चुका है, प्रत्येक शब्द के अर्थ में परिवर्तन आ चुका है। हमें तो कुछ समझ नहीं आता। पत्नी अब पति की बाहों के अतिरिक्त दूसरों की बाहों में झूल सकती है। सुमिता कैसे उस मोटे के साथ उसकी कमर में हाथ डाले, अपना सारा बदन उससे सटाए नाच रही थी।..... नाच रही थी या प्रेमालाप कर रही थी, मुझे नहीं मालूम। कैसे हैं यह लोग। जहर को अमृत मानते हैं और वहशीपन को सभ्यता।” - फिर साधूराम से बोली – “ये लोग कैसे भी जीते हो, हमें इनसे क्या। मगर मुझे तो यूँ लग रहा हैं की हम जेल में आ गए हैं। घर में सुबह शाम उन्मुक्त वातावरण में साँस तोलेते थे। यहाँ तो हर सुबह और हर शाम कमरे या रसोई में बंद रहकर बीतती है। बाहर बड़े लोग जो आए होते हैं। वहां मंदिर जाते थे, यहाँ तो मंदिर भी पास नहीं - दूर है और पुत्र कहता है मंदिर जाने का कोई फायदा नहीं। सुबह से लेकर शाम तक इस कमरे में बंद होकर हम अपनी चेतना खोते जा रहे हैं। मैं तो उब चुकी हूँ।

तुम्हारे जैसी दशा मेरी भी है। तुम कभी-कभी सुमिता की सखियों से बात तो कर लिया करती हो या फिर छोटा-मोटा रसोई का काम कर अपना समय काट लेती हो, लेकिन मुझे तो बेकार लोहे की उस तरह इस कोने में पड़े रहना पड़ता है। मुझे तो जंग लगता जा रहा है, शांति डर है कहीं टूट न जाऊँ।” - साधूराम ने अपनी मनोदशा का वर्णन बड़े सहज-भाव से कर दिया।

लौट चलें...... ?”

- शांति ने अपनी राय प्रकट की।

यही सोच रहा हूँ.......।

हाँ, हमें लौट ही जाना चाहिए। तीन महीने बीत गए। लग रहा है आधी जिदंगी काट दी यहाँ, लेकिन कुछ लगाव नहीं हो पाया। लगता है हम अजनबी हैं...बस...।

मैं वहां जाकर फिर से दुकान कर लूँगा.........

क्या जरुरत है ....... ?”

तो क्या समझती हो, पुत्र भेजा करेगा ?”

हाँ ....

भूल जाओ। उसका खर्चा उसकी तनख्वाह से भी अधिक है। ऊपर की कमाई भी यूँ ही उड़ा देता है। वह हमें कहाँ से भेजेगा। यहाँ रहते उसे कुछ मालूम नहीं पड़ता!”

“- मगर वह आपको दुकान करने देगा.....? ”

“- रोकेगा भी क्यों ..... ? ”

उसकी इज्जत पर बट्टा जो लगेगा.....।

किसने वहाँ जाकर देखना है। हम यहाँ हाथ-पर-हाथ धरे बैठे हैं तो भी कौन देखता है..., दिन भर ये बंद कमरा.....।

सतीश नाराज न हो जाए .... ?”

- शांति ने शंका प्रकट की।

उसे महसूस नहीं होने देंगे। बस कह देंगें खाली बैठना अच्छा नहीं लगता।

तो ठीक है।

मगर अभी कुछ दिन और ठहर जाएँ। उचित अवसर देखकर कह देंगें।....

तब शांति ने केवल इतना ही कहा- जैसा आप उचित समझे, वहीं करें। - फिर कमरे की बत्ती बंद करती हुई बोली – “चलिए, अब सो जाएँ।

तब वह दोनों चुपचाप सो गए।

***

कुछ दिनों के उपरान्त एक सुबह शांति को साधूराम क्रोधित नजर आया। पूछने पर उसने कहा - “जानती हो, दोनों रात को नशे में धुत लौटे थे।

उसकी बात सुनकर शांति को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वह तो पहले से ही जानती थी। बोली – “कोई नई बात नहीं यह।

यह सुनकर साधूराम को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा – “तुम जानती हो ?”

बहुत दिनों से ..........।

मुझे बताया क्यों नहीं ?”

क्या होता बताकर........?”

- उल्टे शांति ने ही पूछ डाला उससे।

क्या होता, हाँ, होना क्या था। पर शांति, अब मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता यहाँ टिके रहना।

हाँ, अब हमें शीघ्र ही लौट चलना चाहिए। यदि अब भी हम यहाँ टिके रहे तो हो सकता है हमारे सम्बन्ध टूट जाएँ। बहू-बेटे की स्वतंत्रता की सीमा का मान हमें नित-प्रतीत होता जा रहा है। उनकी स्वतंत्रता हमसे भिन्न प्रकृति की है। उनको इतना स्वतन्त्र व अपने प्रति इतना लापरवाह देखकर हमारे विचारों को आघात लग रहा है, मानसिक-अशांति हमें जकड़ती जा रही है। हमारा उनका कोई मेल नहीं। पिता-पुत्र के अस्तित्व की रक्षा के लिए अब हमें इनसे दूर जाकर, अपने ही घर जाकर रहना चाहिए। रिश्ता तभी अडिग रह सकता है।

तब उसी दिन साधूराम ने सतीश को अपना निर्णय कह सुनाया। पिता की बात सुनकर क्षणभर के लिए वह स्तब्ध रह गया। उसे एकाएक विशवास ही न हुआ की उसके माता-पिता फिर से घर लौट जाना चाहते हैं।

साधूराम व शांति वापिस खन्ना लौट आए। उन्होंने ने अपनी पूर्व दिनचर्या को अपने जीवन पर फिर से लागू कर दिया। सुबह होती। दोनों उठकर नहाते, फिर मंदिर चले जाते। वहाँ से लौटकर नाश्ता करते। तब साधूराम दुकान चला जाता और शांति घर की सफाई आदि करने लगती। वह अपने खाली समय में अपने अतीत को याद किया करती थी, या फिर पड़ोस में सुख-दु:ख का समाचार लेने चली जाती। इसी तरह समय का चक्र निरंतर आगे की ओर अग्रसर था .....

***

..... समय के चक्र के साथ साधूराम व शांति भी आगे बढ़ते रहे। शांति का कार्य अब अपने खाली समय में केवल अपने अतीत की यादों में लीन रहना है। वह इधर-उधर आना-जाना अब पसंद नहीं करती। दिनभर कल्पनालोक में विचरती रहती है। कभी उसे इससे अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है, तो कभी दु:खमयी यादों से उसका ह्रदय छलनी होने लगता है .....।

***

यूँ ही दिन ढल गया। शाम हो चली। सूर्य के ढलने पर शांति ने मुहँ हाथ-धोया और घर के द्वार बंद कर मंदिर की ओर चल पड़ी। मंदिर में उसने आरती की और प्रसाद ग्रहण कर लौट आई। कुछ देर विश्राम किया, फिर खाना तैयार करने लगी। ..... तभी साधूराम दुकान से लौट आया। उसे खाना खिलाकर उसने रसोई का कम समाप्त किया और तब साधूराम के पास बैठकर दो बातें की - सामान्य जीवन से सम्बन्धित। फिर आँगन में बिस्तर बिछाकर दोनों सो गए। उनके मस्तिष्क अपने-अपने स्वप्न-लोक में विचरने लगे।

..... कल्पना लोक में महल बन रहे थे और इस सृष्टि के आँगन में फैला अंधकार अपने वृतीय-चक्र में आगे बढ़ता जा रहा था। साधूराम व शांति की यही दिनचर्या थी।