उसके आँसूओं का प्रवाह एकाएक रूक गया। मस्तिष्क के एक कोने में बरसों से सुरक्षित नाम पति के मुख से सुनकर, स्मृतियों के बंद द्वार एकाएक खुलने लगे। वह चौंक उठी - "अरे ।...... सतीश तो उसका अपना लाल है। कोख से जन्मा रत्न।" - उसे देखे शांति को एक युग बीत चुका है। उसकी प्रतीक्षा करते-करते उसकी आँखों में धुंधलापन छा चुका है। अब लगता है अंधी हो जाएगी। और तब यदि पुत्र आ भी गया तो क्या होगा ……., उसे देखेगी कैसे। ……… वियोगिनी के आँसू बह निकले। सोचने लगा था उसका मन - "कितनी शीघ्रता से ये दिन बीतते रहे ……, सप्ताह, माह, वर्ष ……, कई वर्ष बीत गए और मुझे कुछ आभास ही न हुआ। मैं बूढ़ी हो गई हूँ, एकाएक विश्वास नहीं आता। एक स्वप्न प्रतीत होता है ये जीवन। धुंध फैलाता एक बादल। कितनी निष्क्रियता ला दी है इसने मेरे जीवन मे। मेरा अतीत कभी वर्तमान भी था, कभी वे दिन साकार भी थे………, मैं एकाएक हाँ नहीं कह पाती। बचपन बीता, जवानी गई………, सब कुछ शेष भी बीतता जा रहा है, क्षण निरन्तर गतिशील हैं। सतीश से मिले तेरह वर्ष………,एक लम्बा युग जैसे बीत गया। अब तो यूँ लगता है हमारे जीवन में सतीश की उपस्थिती मात्र एक स्वप्न थी। केवल स्वप्न। जिसके साकार होने की अब आशा नहीं। मगर ये विरह तो बढ़े जा रही है, मन की व्याकुलता उतरोत्तर तीव्र होती जा रही है।" - तब एकाएक उसकी व्याकुल वाणी पुकार उठी - "सतीश...। ....सतीश।" - और कुछ न कह सकी वह। वाणी उसकी रूँध गई। बरसों से व्याकुल ह्रदय करुणाजनक चीत्कारें मारने लगा।
साधूराम ने देखा, शांति भी रोने लगी है। दोनों की रात्रि की निस्तब्धता को भंग करती सिसकियों ने वातावरण को भयानक बना दिया था। साधूराम को इस सूनेपन का आभास हुआ। इधर-उधर देखा उसने। खामोश दीवारें उसे घूरती प्रतीत हुई। निराशा देखकर तनिक डर गया। झट से आँखे पोंछ ली उसने और स्वयं को ढांढस बँधाने के प्रयत्न में शांति से बोला - "तुम क्यों रोती हो ?"
शांति ने दृष्टि उठाकर देखा साधूराम को कुछ इस तरह से कि, जैसे उसी ने ही सब कुछ छीना है। हाँ, वही तो अपने हठ पर अड़ा रहता था और छोटी-छोटी बात पर लड़ता था। उसी ने ही तो उसके पुत्र से दूर किया था एक कटु-दीवाल चुन कर। वह मिल नहीं सकी सतीश से तो केवल इसी साधूराम की वजह से। साधूराम वही तो है जिसने शांति के ममतामयी-कोमल ह्रदय को अपने कठोर वचनों से सुप्त कर दिया था। लेकिन भीतर-ही-भीतर वह हरदम घुलती रहती। समय आया जब साधूराम का हठ टूट गया। पुत्र उसे भी याद आने लगा। कभी-कभी तो वह विलाप भी करने लगता था अपने बेटों को याद करके। शांति भला तब कैसे चुप रह सकती थी। रोते-रोते थक जाने पर दोनों एक-दूसरे को सांत्वना देते। दु:ख भूलने के लिए दूर कहीं खोकर अपने बचपन, अपनी जवानी के दिन याद करते। ऐसे में जब कभी शांति कहती उससे जा कर सतीश को मिल आने को, तब साधूराम कहा करता - "जरा सोचो, यदि उसके ह्रदय में हमारे प्रति कुछ स्नेह शेष होता तो स्वयं न चला आता हमारे पास। हम आप जाएँ इससे हमारा मान घटेगा, शांति..... मैं पिता हूँ और अपने जीते-जी इस शब्द को इतना तो न नष्ट होने दूँगा। हाँ, आ जाए वह, गले न लगा लूँ तो कहना।" - इस पर जब शांति पूछा करती - "फिर अक्सर एकान्त में क्यों इतना ताद कर उसे आसूँ बहाते हैं ? क्यों पुकार उठते हैं आप उसे ?" - तब साधूराम कहता - "शांति। आसूँ मैं अपने भाग्य के प्रति बहाता हूँ। सतीश के प्रति हमारा स्नेह अभौतिक है। उसी को स्मरण किया करता हूँ।"
यह सुनकर शांति कुछ न कहती थी।
समय आया जब उन्हें सतीश के भौतिक-स्वरूप की आवश्यकता महसूस हुई। लेकिन तब पता लगा कि समय के पंखों के साथ उड़कर उनका पुत्र कहीं और जा बैठा है। दूर एक शहर में। लेकिन वहाँ ढूँढ पाना उसे, यह साधूराम के बस की बात नहीं थी। तब दोनों को अपने मन की इस उत्कंठा को अपने आँसूओं के भार से, अपने बीत चुके दिनों की याद से दबाना पड़ी। और कभी जब इन सब को चीर कर वही उत्कंठा फिर उभर आती है तो उनकी तड़पन का कोइ किनारा नहीं होता। कभी रोते हैं, कभी करुण शब्दों से एक दूसरे के मन को और अधिक रुला कर शांत करने की चेष्टा करते हैं।
एकाएक शांति के बहते आसूँ रुके, लेकिन करुण शब्द फूट पड़े उसके मुख से - "कहते हो, मैं क्यों रोती हूँ ? हाँ, क्यों रोती हूँ मैं। मुझे तो हँसना चाहिए, मुझे खुशियाँ मनानी चाहिए, मेरा कोमल ह्रदय जो टूट चुका है। मैं माँ हूँ जानते भी हो, फिर भी कहते हो मैं क्यों रोती हूँ। इतने अज्ञानी तुम कैसे ? मेरी ममता पीड़ित है, जानते भी हो, फिर भी कहते हो-तुम्हें दु:ख क्या। माँ कब क्यों रोती है, कब क्यों स्वयं को पीड़ित कहती है - नहीं जानते क्या ? आठों पहर मेरे साथ रहते हो, लेकिन मेरे दिल के दर्द को नहीं समझते। पत्थर तो नहीं तुम, जो सुन समझ नहीं सकते माँ के ममतामयी कोमल ह्रदय के स्वर को।"
- शायद मन को इन शब्दों ने कुछ ढाढ़स बंधाया, वाणी की उग्रता कुछ शांत हो गई। तब बड़े करुण स्वर में कहने लगी - "असंख्य इच्छाओं के बल पर, अपनी मंगलकामना करते हुए मैनें कल्पना लोक में बहकर कई महल बनाए थे। परन्तु होनी को कौन टाल सका है। मुझे कोई ऐसा न मिला जो मेरे मन की थाह ले सके। एक को आदमी के हाथ की बनाई मशीन ने रौंदा डाला और दूसरे को इस समाज ने इतना बदल दिया कि उसके लिए हम दो अजनबी बन गए।……… राजा के वियोग में इतने आँसू अभी तक इन आँखों ने नहीं बहाये, जितने की जीते-जागते, अपनी दुनिया में मस्त सतीश की याद में बहा रहे हैं। जिस तड़पन से बचने के लिए हमने भक्ति अपनाई थी, मन ठहर गया था कितनी जल्दी। भगवान की मूर्र में राजा की हँसती-खिलती सूरत दिखाई पड़ती थी। आज वह सब बिसर गया है। राजा जैसे हमारे जीवन का कोई अंग नहीं रहा। बस केवल सतीश है और उसकी याद तड़पाए जा रही है। लगता नहीं कि कभी यह तड़पन खत्म होगी……….।
"मैं कितनी दुर्भाग्यशालिनी हूँ, कोई नहीं कहता कि "ले, मैं तेरा लाल ले आया ……. ।" तुम भी बस अपनी ही कहते हो। कभी नहीं कहा - "चल, रोती क्यों है, तुझे तेरे लाल से मिला लाऊँ।" - और न उस निष्ठुर ने कभी सोचा - "माँ रोती होगी,चलूँ, चलकर उससे मिल आऊँ।" - काश। इस धरती में समा जाऊँ कि उस जैसी विशाल बन कर कहीं भी बैठे अपने लाल को हरदम निहार सकूँ। जहाँ भी वह जाए, मुझसे दूर न हो सके। काश। मुझे माँ कहने आ जाता कोई, अभी। ……..लेकिन मेरा ऐसा भाग्य कहाँ।………"
- आसूँ उसके फिर बह निकले थे। आँगन का सूनपन उसे डराने लगा था। उससे दृष्टि चुराकर उसने साधूराम की ओर देखा। वह चुपचाप बैठा, निरीह-भावों से उसे निहार रहा था। उसके शब्दों से शायद आज ही समझा था कि शांति उससे ज्यादा तड़पती है सतीश को याद करके।
शांति प्रतिदिन अपने बीते दिनों को याद करती थी। वर्तमान उसके लिए पूर्णत: सूना था। पुत्र की याद में वह जब भी अश्रु बहाती, अन्तर्मन की गहराईयों से जैसे सांत्वना-भरे स्वर में उसे कोई कहता प्रतीत होता - "शांति। मत उदास हो। मत रो। तेरा लाल एक दिन तुझसे आ मिलेगा। वह माँ को याद करेगा। एक दिन उसे अवश्य ही माँ की ममता की पुकार सुनाई पड़ेगी। स्मरण कर वह पश्चाताप के आसूँ बहाएगा, भागा-भागा तेरे पास आएगा, तेरे अंक में सिर छिपा कर फूट-फूट कर रोएगा। अंबर में कब तक पंछी विचरता रह सकता है। पंख थक जाते हैं तो विश्राम करके अपने नीड़ को लौटता है। सतीश आएगा, शांति उसका नीड़ तेरा अंक ही तो है। मत रो, शांति, मत रो।" - और मन में उठते आशा भरे इस स्वर को सुनकर शांति चुप हो जाती थी। मगर कब तक यूँ चलता रहता ? कब तक वह पुत्र वियोग में भीतर-ही-भीतर घुलती रहती ? आखिर वह भी एक स्त्री थी, कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत ह्रदय वाली एक माँ। साधूराम जब भी निराशा से भरे दो बोल उससे बोलता था, उसके ह्रदय का दर्द भी वाणी में ढलकर फूट पड़ता।
………. जीवन सागर केवल शांत-सरल नहीं। इसमें तूफान भी आता है, सूर्य के आलोक में चाँदी की भाँति चमकता, शांत नीर कभी-कभी भयंकर लहरों का रूप धारण कर लेता है। तब लहरें ऊँची-ऊँची उठती हैं, आकाश को छूने के प्रयत्न में किनारे पर खड़े प्राणी को अपनी शक्ति के बल पर किन्हीं अज्ञात गहराईयों की ओर खीचं कर ले जाती है।…….. मगर एक समय फिर वही आता है, लहरें शांत हो जाती हैं। भयंकर गर्जना करती नीचे आ गिरती हैं और लौट कर सागर के अथाह नीर में कहीं खो जाती हैं।
भावनाओं का तूफान थम गया था। वातावरण में पहले दिनों की भांति निस्तब्धता व्याप्त हो गई थी।
आँगन मे बिछी खाट पर साधूराम लेट गया। शांति उसके समीप ही अपनी खाट बिछा कर लेटी हुई थी। दोनों चुप थे। आकाश को घूर रहे थे। कहीं दूर से उठ रही स्मृतियों की पुकारों को सुन रहे थे। अर्द्धचेतन मस्तिष्क उन्हें स्वप्न लोक की ओर ले जाने का प्रयत्न कर रहा था। शांति शीघ्र ही कहीं दूर खो गई। अस्तित्व का मोह तब न जाने उसमें से कहाँ लुप्त हो गया था। उसका शरीर पूर्णतया: ढीला पड़ा हुआ था। वह सो चुकी थी|
लेकिन साधूराम अब भी आकाश को घूर रहा था। उसकी आँखों की नींद कहीं और ही विचर रही थी। आकाश में झिलमिलाते तारे और अपने आसपास उसे अधंकार के साये नृत्य करते दिख रहे थे। ह्रदय की गहराईयों मे उतरकर साधूराम अपने मस्तिष्क में उभर रहे नए-नए विचारों का अवलोकन कर रहा था।
नित नई घटनाओं का अवलोकन करना, उनका स्पर्श पाकर किसी नए अनुभव का आभास पाना हमारे जीवन का ध्येय है। सृष्टि का प्रत्येक अंश एक घटना है और प्रत्येक घटना हमारे लिए ज्ञान का भंडार। यहाँ कुछ भी व्यर्थ नहीं। प्रत्येक बात एक चित्र का रूप धरे सामने आती है, उसका एकाग्रचित हो अवलोकन कर उसके द्वारा प्रसारित ज्ञान को अपने मस्तिष्क में संजोकर हम भूल जाते हैं कि कब क्या हुआ था। कहानी का मर्म समझ लिया, यही बहुत अधिक है। हमारा ध्येय है जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना, अपने जीवन-कर्म को निरन्तर गतिशील रखना। जो कार्य पूर्ण हो चुका है, उस पर ही नहीं अपितु विकासशील पर भी ध्यान देना। अक्सर हम यही करते हैं। पुरानी बातों को भूलकर दैनिक-जीवन के कार्य-कलापों में लीन रहते हैं। लेकिन कभी-कभी निराशावाद अपना प्रभाव दिखा जाता है। तब हम सब कुछ भूल जाते हैं। अस्तित्व ज्ञान बिसर जाता है। और साधूराम की भांति व्यर्थ की सोचते हैं। साधूराम ने केवल अर्थी देखी। यह कोई ऐसी अनोखी बात नहीं थी कि मस्तिष्क की घुंडी निराशा की ओर मोड़ दी जाए। साधूराम आज निराशावाद के सिद्धान्तों का प्रेरक बन अपनी शक्ति के बहाव को अपने अतीत के टूटे क्षणों की ओर मोड़ ले गया था। निराशावादी प्रवृत्ति ने उसकी आँखो में आँसू भर दिये थे। उसकी वाणी रह-रह कर यही कहने को विवश हो गयी थी जैसे कि साधूराम दुर्भाग्यशाली है।.... साधूराम दुर्भाग्यशाली है।
शांति ने उसे समझाया, सब कुछ साधूराम ने सुना। लेकिन वह चाहकर भी स्वयं को सांत्वना न दे पा रहा था। किसी की सांत्वना से मस्तिष्क को तब तक शांति नहीं मिलती जब तक कि मस्तिष्कवादी स्वयं को, अपने ह्रदय को स्वयं सांत्वना देने का प्रयत्न न करें। लेकिन वह तो ऐसा नहीं कर पा रहा था। उसका मन तो अपने उन्हीं क्षणों की ओर झुक गया था, जिनकी कल्पना उसके अस्तित्व में सिहरन पैदा कर रही थी। अपने अंत की सोचकर जब वह सिहर उठता तो मन कुलबुला उठता उसका और वह फिर उन्हीं दिनों की ओर जा पहुँचता, जो उसकी इस सिहरन का कारण बने थे। उनकी याद कर कभी पश्चाताप महसूस होता उसे, कभी अपना दुर्भाग्य झलक उठता। वो दिन तो अब रहे नहीं थे, जब मन कठोर था उसका। अपने विचार थे उसके, जिनकी आड़ लेकर वह अपने जीवन पर कठोर प्रहार कर बैठा था। बेटा यदि अपनी मर्जी से कुछ कर रहा था तो काश साधूराम उसे टोकने के, ताने मारने के, अपनी प्रसन्न्ता प्रकट कर देता, तब शायद ये दिन न आते उसके जीवन में। तब वह हँस तो सकता था खुलकर। तब उसे रह-रह कर अपना अंत स्मरण न आता और न ही अस्तित्व में उसके कहीं सिहरन पैदा होती। लेकिन आज के साधूराम के मुख से निकलते अफसोस भरे शब्द यही कहते हैं कि "होनी को कौन टाल सकता है।" - ऐसा जब भी कहता है साधूराम, तब उसे अपने उन शब्दों पर पश्चाताप होता है जो सतीश के प्रति उसके मुख से फूटते थे, कभी शांति के सम्मुख, कभी सतीश के सम्मुख। गलत कौन था ? - इस प्रश्न पर अब उसका बूढ़ा मन नहीं सोच पाता है। - बस वह केवल सोचता है - वे दिन, वे बातें। और कुछ सोचने का, विचार करने का उसमें अब दम नहीं रहा है।
अब भी वही सब कुछ सोच रहा था। उसका मन, याद कर रहा था सतीश के संग दिल्ली में बिताये दिनों को!
उन्हें दिल्ली आए पन्द्रह दिन बीत चुके थे। लेकिन अभी से उन्हें महसूस होने लगा था कि एक अरसा जैसे बीत चुका है वह अपना घर छोड़कर यहाँ आए हों। ऐसे में दोनों को अपना मन उचटता महसूस हो रहा था। दोनों के पास कुछ काम तो था नहीं। शांति को अब न घर का काम करना पड़ता था, ना साधूराम के पास यहाँ कोई दुकान थी जिसकी गद्दी पर बैठकर वह ग्राहकों की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए अपना समय बिता सके। घर के पास कोई मंदिर भी नहीं था कि सुबह-शाम वहाँ जाकर अराधना कर सकते वे। बस घर पर ही कभी साधूराम रामायण या गीता पढ़कर अपना मन बहला लिया करता। शांति का मन होता तो सुन लेती थी, या फिर ध्यान मग्न होकर बैठकर मन-ही-मन ईश्वर का जाप करती रहती। लेकिन दिनभर तो ऐसा नहीं हो सकता था। कुछ समय सतीश-सुमिता के संग घुल-मिलकर बातें करने की लालसा थी उनकी। लेकिन ऐसा अवसर कभी-कभी ही मिल सकता था उन्हें। इस तथ्य का एहसास पिछले पन्द्रह दिन तक सतीश-सुमिता की दिनचर्या देखकर उन्हें हो गया था। उन दोनों ने अपनी दिनचर्या अत्याधिक व्यस्त बना रखी थी। साढ़े-सात बजे वे सोकर उठते थे। नहा-धो कर तैयार हो नौ बजे सतीश नाश्ता करके दफ्तर चला जाता था। घर का काम करने के लिए नौकर रखा हुआ था। सुमिता को थोड़ा-बहुत ही काम करना पड़ता था, जिससे वह दस बजे तक पूरा कर लेती थी। तब वह तैयार होकर अपनी सखियों के यहाँ चली जाती या फिर वहीं उसकी सखियाँ आ जाती थी। जिनके संग बतियाते, ताश खेलते दिन का एक-डेढ़ बज जाता था। तब खाना खाकर वह आराम करती थी।
शाम को सतीश दफ्तर से लौटता तो दोनों तैयार होकर क्लब चले जाते। वहाँ से उनका लौटना आठ बजे के बाद ही होता था। और तब तक दिन भर की ऊब मिटाने के लिए साधूराम-शांति अपने-अपने बिस्तर पर लेट कर सोने की चेष्ठा करते थे। ऐसा चक्र देखकर साधूराम सोचने लगा था कि वह पुत्र के साथ रहते हुए भी उससे कितनी दूर है ! जैसे वह अब भी खन्ना में हो और सतीश दिल्ली में!
मन क्षुब्ध-सा रहने लगा साधूराम का सतीश के प्रति। चाहता था ना समझ बालक की तरह सतीश हर कदम उससे पूछ कर उठाये। लेकिन ऐसा कुछ करना शायद सतीश अनिवार्य नहीं समझता था। और न ही ऐसा कुछ जरूरी भी था कि कुछ भी करने से पहले वह अपने पिता से पूछता, जिसका सामाजिक घेरा अत्यन्त संकीर्ण रहा हो वह सतीश को क्या समझ दे सकता था। साधूराम एक तरह से एक नई संस्कृति में रहने आया था। यहाँ आकर वह सतीश को अपने विचारानुरूप नहीं ढाल सकता था, बल्कि वह यदि कुछ बदलाव चाहता भी तो उसके लिए उचित यही था कि वह स्वयं को उसके सामाजित रीति-रिवाजों के अनुरूप ढाल ले। लेकिन इतना उन्मुक्त वातावरण, इतनी अधिक शानों-शौकत उसके बस की नहीं थी अपनी मध्यम-वर्गीय, एक छोटे से शहर में बीत चुकी आधी से ज्यादा जिन्दगी के ऊपर लादनी ! यह बोझ था उसके लिए। और इसी कारण जब उसने देखा कि महीने भर में आज दूसरी बार किसी जश्न मनाने का इंतजाम किया जा रहा है घर में तो वह अपनी जिज्ञासा शांत नहीं रख सका। पूछ ही बैठा सतीश से –
आज किस खुशी में पार्टी दे रहे हो, बेटा! – वह समझ रहा था कि इसका अवश्य ही कोई कारण होगा ! और पार्टी का कारण कोई खुशी ही हो सकती है, फिर अपने बेटे की खुशी का कारण यदि बाप को ही मालूम न हो तो फिर क्या फायदा बाप बनने का ! पिछली बार, उनको दिल्ली आए अभी दो दिन ही हुए थे तब, पार्टी का आयोजन किया था उसने तो कारण बताया था सुमिता का जन्मदिन और सफर से लौट आने की खुशी। पहली बार वह दिल्ली से बाहर पति-पत्नि के रूप में इकट्ठे गए थे। उस दिन की पार्टी में साधूराम भी शामिल हुआ था। और वहीं उसे मालूम हुआ था कि सुमिता व सतीश शादी से पहले भी एक बार मसूरी घूम आए थे। तब उसे न केवल इस बात का एहसास हुआ कि उसकी दुनिया और उसके बेटे की दुनिया में जमीन-आसमान का फर्क है, बल्कि इस बात का भी कि इस पार्टी में शरीक होकर जहाँ वह स्वयं को कितना हल्का महसूस कर रहा है, वहीं हंसी-मजाक-चुहलबाजी के बीच सतीश स्वयं को कितना बंधा हुआ महसूस कर रहा था।
साधूराम देख रहा था कि सतीश चाह कर भी वह नहीं कर पा रहा, जिसे करने की इच्छा उसके मन में हिलोरें मार रही है। तब वह पार्टी समाप्त होने से पहले ही उठ आया था। लेकिन फिर भी उसके मन ने जो हल्कापन महसूस किया था उस दिन, वह उसकी क्षुब्धता को दबाकर उभर आया था। पार्टी शब्द एक तरफ जहाँ उसे गुदगुदा रहा था, वहीं दूसरी तरफ सतीश का उस दिन का वह संकोच स्मरण हो आया। और शायद इसीलिए वह घर में पार्टी का आयोजन होता देख अधिक प्रसन्न नहीं दिख रहा था।
उसके प्रशन पर सतीश को वह खुशी नहीं हुई जो पिछली बार उसने उसके सम्मुख प्रकट की थी। आज वह बनावटी रूप से उसके सम्मुख मुस्कुराता हुआ बोला – बस यूँ ही दोस्तों से मिलने के लिए एक छोटे से जश्न का इंतजाम किया है।
और उसका वह बनावटीपन साधूराम ताड़ गया। उसकी क्षुब्धता उभर आई। तब बोला – दोस्त भला वैसे नहीं मिलते क्या....?
मिलते हैं, लेकिन काम के समय। तब हँस कर बात कहाँ कर सकते हैं। - सतीश ने उत्तर दिया। लेकिन वह ताड़ गया कि उसके पिता का मूड आज कुछ उखड़ा हुआ है। लेकिन इस पर खर्च क्या कम आता है ?
सोसाइटी में इज्जत बनाने के लिए यह सब तो करना पड़ता है, बाबू जी। - संयत स्वर में उत्तर दिया उसने।
इज्जत जरुरी तो नहीं कि ज्यादा-सें-ज्यादा पार्टीयाँ देने से बढ़ती हों। चादर से ज्यादा लंबे पैर करने में घाटा ही होता है।
लेकिन मैं अपनी चादर से बाहर काम नहीं करता बाबूजी।
- क्यों ? कितनी तनख्वाह है तुम्हारी, जो एक-एक पार्टी में पांच-सात सौ रुपया खर्च कर देते हो। फिर साथ में तुम्हारा घूमने-फिरने का, घर का, नौकर-चाकर का खर्चा पूरा हो जाता है ? - और साधूराम का यह प्रश्न भी सही था। हजार-बारह सौ वेतन पाने वाला अफसर कैसे ढाई-तीन हजार खर्च करके कह रहा था कि पाँव उसके चादर से बाहर नहीं। परन्तु सतीश का उत्तर सुनकर साधूराम को महसूस हुआ था कि अपने खून-पसीने से पाल-पोसकर, पढ़ा-लिखा कर वह जिस पुत्र का निर्माण करना चाह रहा था, उसमें वह कहीं चूक गया था। तभी तो उसका बेटा किसी भी तरह से उसके विचारों के अनुरूप नहीं बना। सतीश ने उत्तर दिया - अकले तन्ख्वाह ही तो नहीं मेरी। ऊपर से भी दो-तीन हजार बन जाते हैं। तन्ख्वाह से दुगने, कभी तिगुने। - सतीश ने समझा था कि पिता उसकी कमाई के बारे में सुनकर फुलकर कुप्पा हो जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसके शब्द सुनकर साधुराम पलभर के लिए तो स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर बोला - बहुत अच्छे बेटे, तुम्हारी यह बात सुनकर तो मुझे लगता है कोई बहुत बड़ा काम करते हो तुम देश समाज के लिए। जो जनता अपने कारिन्दों पर इतनी बख्शीश लुटा देती है।
यह बख्शीश नहीं, बाबू जी, हक है। जो प्रथा शुरु से चली आ रही है उसी के अनुरूप ही सब होता है। - सतीश ने अपनी बात कही।
ये प्रथाएँ किस काम की, बेटा, और फिर तुम्हारी ये काली कमाई पानी में ही तो बह जाती है। और ये तुम्हारे दोस्त भी तो तुम्हारे जैसे होंगे। वे भी ऐसी कमाई करते होंगे। प्रथा मानते होंगे इसे। फिर यह पार्टी देना भी प्रथा है और प्रथा को निभाने पर कौन तुम्हारा एहसानमंद होगा ? उनके लिए तो तुमने कुछ किया नहीं। केवल अपने समाज की प्रथा बढ़ाई है……। - साधूराम अपने प्रवाह में बहे जा रहा था।
शान है इसी में। आज मैं किसी को बुलाता हूँ तभी कोई दूसरा मुझे बुलाएगा……..। - सतीश अपनी बात पर टिका था। उसे साधूराम का बहस को लंबा करना अखरने लगा। लेकिन साधूराम तो अपनी धुन में बहता था। बोला- यह झूठी शान का रोना अच्छा नहीं होता बेटा, खर्चे बढ़ाए जा सकते हैं, उन्हे कम करना दुख:दायी महसूस होता है।
तब सतीश ने बहस समाप्त करने के अन्दाज में कहा- आप यूँ ही बेकार का किस्सा ले बैठे है, बाबूजी। आप आज तक जिस वातावरण में रहे हैं, उससे बहुत अलग और ऊँचा है हमारा समाज। अब आप छोटी बातें मत सोचा कीजिए…….।
साधूराम को उसका यह "ऊँचा" शब्द और "छोटीबातें" अखर गया। तब वह बोला - कैसे न सोचूँ बेटा, मैं ठहरा अनपढ़-गंवार और छोटे समाज का आदमी। - उसके स्वर में दु:ख का भाव आ गया था। यह शब्द उसे कहीं गहरे में जाकर लगे थे। तब वह वहाँ से हट गया। अपने कमरे में जाते-जाते उसने सतीश को कहते सुना.... - न जाने हर दम सबको गलत क्यों समझते हैं। मैं जो कहना चाहता हूँ, उल्टा अर्थ लगा लेते हैं।
क्या वास्तव में सतीश के कहने का ढंग ही गलत था ?
सूरज ढलने तक साधूराम कमरे में बैठा रहा। तब तक उसका मन शांत हो गया था। मन उठकर बैठक में जाने को करने लगा था। घर मे शुरु होने जा रही रौनक को देखने की तमन्ना उभर आई थी उसमें। तब वह उठा ही था कि सतीश कमरे में चला आया उसके। साधूराम ने उसकी ओर देखा। तब सतीश ने कहा - आप दिन भर कमरे में ही पड़े रहे, क्या बात है ?
अब मन ठीक था, इसलिए बहाना बना दिया - तबीयत कुछ खराब महसूस हो रही थी।
अब कैसी है ? -सतीश ने पूछा। वह कुछ और भी कहना चाहना था उससे।
कुछ आराम है। - साधूराम ने कहा और सोचा कि सुनकर उसका बेटा पार्टी में शरीक होने के लिए कहेगा। तो आप आराम कीजिए, कहीं और तबीयत न खाराब हो जाए। आपको खाना कमरे में ही पहुँचा दूँगा। - यह शब्द कहकर सतीश ने जैसे चैन की साँस ली। तब चाह कर भी साधूराम का दिल नहीं किया कि वह कह दे कि ऐसा कुछ नहीं। वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन पुन: उसकी आँखों में सतीश का वह संकोची रूप उभर आया - वह मन मार कर पुन: पलंग पर लेट गया। सतीश मुस्कुराता हुआ कमरे से निकल गया। उसकी मुस्कुराहट देखकर उसका मन खिन्न हो उठा।
बाहर बड़े कमरे में पार्टी हो रही थी। साधूराम चुपचाप खिन्न मन से पलंग पर लेटा हुआ था। शांति शायद किसी दूसरे कमरे में थी। तभी सुमिता ने खाने की ट्रे लिए कमरे में प्रवेश किया। तो साधूराम ने क्षुब्ध स्वर में कह दिया - मुझे भूख नहीं है।
ऐसा सुनकर सुमिता ने मधुर स्वर में पूछा था- क्या बात है। बाबू जी, तबीयत तो ठीक है ?
ठीक है………..। मन नहीं कर रहा।
हमसे कुछ गलती हुई, बाबूजी, आप नाराज लगते हैं - सुमिता उसके मनोंभावों को ताड़ गई थी।
गलती कौन करता है, बेटी।………. और यदि कोई करता भी है तो स्वीकारता कौन है ? - साधूराम का स्वर गम्भीर था।
आप क्या सोच रहे हैं, खाना खाइये न।
सुमिता का आग्रहपूर्ण स्वर सुनकर तब साधूराम ने उसके मुख की ओर देखा था। सुमिता के मुख पर आशा के भाव थे……..जैसे उसे विश्वास था कि साधूराम उसकी बात नहीं टालेगा। साधूराम ने उसके मनोभावों को समझा और खाना खाने लगा। तब सुमिता कमरे से बाहर चली गई थी। बड़े कमरे से आ रही कहकहों की आवाजें सुनते हुए साधूराम सोच रहा था कि वह कभी इन कहकहों में सम्मिलित नहीं हो पाया। उसका जीवन आरम्भ से ही सूना है, अब भी सूना है, और लगता है सदा सूना रहेगा। सकान्त-चुप्पी उसके जीवन पर्यन्त साथी रहेंगे। सतीश अपने पिता के इस अकेलेपन को जानकर भी दूर नहीं करता। उसमें से भी वह शक्ति समाप्त हो गई जो उसे कह सके इन कहकहों मे खुलकर भाग लेने को। सतीश ने भी तो नहीं कहा उससे - बाबू जी। आप भी मेरे दोस्तों के साथ बैठ कर हँसिये। तबीयत ठीक हो जाएगी। कितना अलगाव महसूस कर रहा था वह। आँसूओं को वह रोक नहीं पाया ऐसा सोचकर मुँह की ओर जाता रोटी का टुकड़ा हाथ में ही रह गया था और वह सामने की ओर देखने लगा था, एकटक। तभी सुमिता पुन: आ गई थी - बाबूजी। कुछ चाहिए ?
तभी उसने साधूराम की आखोँ से आसूँ बहते देख लिए थे। चौंक पड़ी एकाएक। अविश्वास भरे स्वर में बोली - बाबूजी। आपकी आँखों में ये आँसू।
………। - साधूराम को उसका ये स्वर सुनकर अपनी स्थिति का एहसास हुआ तो उसने स्वयं पर ही आश्चर्य प्रकट किया।
सुमिता अपने ससुर की यह दशा देखकर बेचैन हो उठी थी। उसने तब पूछा- बाबू जी। क्या हुआ ?
आप रोए क्यों ?
यूँ ही, बेटी, कुछ भी नहीं………। साधूराम ने बात टालनी चाही।
नहीं बाबू जी, अवश्य ही कोई बात है। मुझे बताइये। आपको। मेरी सौगन्ध……।…….. सुमिता के स्वर में स्नेह था। और वह स्नेह साधूराम के मन में छिपी बात को उगलवा कर ही रहा। तब उसने आद्र स्वर में कहा- पिछली बार मुझे पार्टी में शामिल किया था तुमने, बहुत आनंद आया था मुझे। तुम्हारे अतिथियों के कहकहों को सुनकर मैं आज उनमें शामिल तो नहीं हो सका, पर अपने अतीत में जा पहुँचा।
उन जैसी उन्मुक्त हँसी मैंने आज तक नहीं देखी......., मैं इतना खुलकर कभी नहीं हँसा......। - यह सुनकर सुमिता स्तब्ध रह गई थी। उसके मस्तिष्क को उन शब्दों ने झकझोर-सा दिया था। आँखों में उसकी दो आँसू टपक पड़े।
आप भी चलिए, बाबू जी.....।
- आँखे पोंछ कर सुमिता ने कहा था।
कहाँ .......?
नहीं-नहीं .... वहाँ मेरा जी घबराएगा। मैं अब नहीं बैठ सकता शोर में। मुझे यहीं से आनंद आ रहा है.......। - तब उसे लगा इन्हीं शब्दों को कहने के साथ-साथ भीड़ में शामिल होने की उसकी इच्छा मर गई है। उसे अपने ह्रदय की धड़कन तीव्र महसूस हुई - तुम जाओ अब, सब तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे। .... मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए। मेरा पेट भर गया।
दो महीने और बीत गए। साधूराम ने देख-जान लिया कि उसमें और उसके बेटे में बहुत फर्क है। विचारों का अन्तर तो ऐसा है जिसे वह क्या, कोई भी नहीं मिटा सकता। और तब उसने सोचा की उसके पास रहकर अपने भीतर हीन भावना को उतरोत्तर पनपने देने से बेहतर उसके लिए यही होगा की वह शान्ति को लेकर खन्ना लौट जाए। पुत्र से वह सम्बन्ध तोड़ना नहीं चाहता था, इसीलिए लौटने का बहाना उसने बनाया घर की याद। बस और कुछ नहीं। वह अब भूलकर भी कल्पना नहीं करता था कि कभी कोई ऐसा दिन आएगा जब सतीश उसके चरणों में बैठकर उसकी सेवा करेगा। उसके विचारों के अनुरूप चलेगा। अपनी बूढ़ी हड्डियों को आराम देने कि बात उसने विचारनी छोड़ दी थी। अब साधूराम था, शांति थी, और उनकी पैतृक दुकान थी ......, अलग सा छोटा-सा संसार था, जिसका सतीश के संसार से सम्बन्ध जोड़े रखने का काम चिट्ठयां कर रही थी। पिता-पुत्र की आत्मा कभी एक थी। शांति का कभी एक ही अस्तित्व था, जिसके दो पहलू थे - सतीश जिसे मां के रूप में देखता था..और...साधूराम जिसे अपनी पत्नी मानता था। अब शांति के दो टुकड़े हो चुके थे। एक वही था, वैसा ही जैसा उत्पति के समय था। उससे उसको वही प्यार मिलता था, वही सुख। दूसरा टुकड़ा अलग एक कोने में जा पड़ा था, जिसके पास केवल दो ही शब्द थे - "माँ को प्रणाम ?"
- माँ को प्रणाम......।
बस और कुछ नहीं ......।
- मां तो तेरी याद आती है। मन करता है उड़कर तेरे पास चला आऊँ। - ऐसा कुछ भी तो नहीं। उसके लिए माँ तो हर बार लिखवाती है - तेरी माँ हरपल तुझे याद करती है। तेरे लिए रोती भी है। मन बहुत करता है उसका तुझे देखने को। तू आकर उससे मिल जा।
- लेकिन उत्तर वही आता - बस केवल - माँ को प्रणाम.....।
..... और कुछ नहीं.......।