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कविता में गीता
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कविता में गीता
Voice and Text
(1)
गीता धर्म (GITA DHARM)
(2)
गीता निर्माण (GITA NIRMAN)
(3)
अर्जुन विषाद योग (ARJUN VISHAD YOG)
(4)
सांख्य योग (SANKHYA YOG)
(5)
कर्म योग (KARM YOG)
(6)
ज्ञान कर्म सन्यास योग (GYAN-KARM-SANYAS YOG)
(7)
KARM-SANYAS YOG (कर्म सन्यास योग)
(8)
आत्म संयम योग (ATAM-SANYAM YOG)
(9)
ज्ञान विज्ञान योग (GYAN-VIGYAN YOG)
(10)
अक्षर ब्रह्म योग (AKSHAR-BRAHM YOG)
(11)
परम गोपनिय ज्ञान योग (PARAM GOPNIYE GYAN YOG)
(12)
विभूति योग (VIBHUTI YOG)
(13)
विश्व रुप दर्शन योग (VISHWAROOP DARSHAN YOG)
(14)
भक्ति योग (BHAKTI YOG)
(15)
शरीर और आत्मा विभाग योग (SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG)
(16)
गुणत्रय विभाग योग (GUNTREY VIBHAAG YOG)
(17)
पुरुषोत्तम योग (PURSHOTTAM YOG)
(18)
देवासुर सम्पद विभाग योग (DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG)
(19)
श्रद्धात्रय विभाग योग (SHRADHATREY VIBHAG YOG)
(20)
मोक्ष सन्यास योग (MOKSH SANYAS YOG)
(21)
कृष्ण भाव (KRISHAN BHAAV)
श्रद्धात्रय विभाग योग (SHRADHATREY VIBHAG YOG)
ISBN: 81-901611-05
श्रद्धात्रय विभाग योग
अर्जुन बोला
'हे कृष्ण !
मैं समझ गया,
काम-क्रोध-लोभ
से जीवन नरक होता |
हम जीवन सरल बना सकते,
त्याग इन्हें
परम गति को पा सकते |'
'मैं समझ गया
जो शास्त्र विधि का त्याग करे,
मनमाने ढंग से कर्म करे |
उसके कर्म सफल नही होते |
सिद्धि भाव से किए कर्मों से
सिद्धि नही कभी मिल पाती |
सुख हेतु किए कर्मों से
सुख नहीं कभी मिल पाता |'
'न करने योग्य कर्मों को जानो |
न करने योग्य कर्मों को त्यागो |
निष्काम भाव से शास्त्र विधि युक्त
कर्म करो |'
'ऐसे में हे प्रभु !
ऐसे बहुत से प्राणी जन हैं ,
श्रद्धा बहुत
पर शास्त्र विधि का ज्ञान
नहीं है |
वे श्रद्धा से पूजा करते हैं |
शास्त्र विधि का सोचा नहीं,
अज्ञान है,
विधि का त्याग है |
ऐसे प्राणी की स्थिति कैसी ?
वह सात्विकी ,
राजसी या कि,
तामसी है ?'
श्री भगवान बोले,
'एक श्रद्धा शास्त्र-अध्ययन से,
ज्ञान से, चिन्तन से |
दूसरी स्वयं स्वभाव स्थित |
कर्मों से, संस्कारों से |
मन में छिपे पूर्व जन्म के संस्कारों से |'
'यह श्रद्धा सात्विकी, राजसी
और तामसी होती |
जैसा जिसका स्वभाव होता,
जैसा जिसका भाव होता,
वैसा ही इसका भेद होता |'
'हे भारत!
गुणातीत ज्ञानी तो गुणों की खान होता,
उसकी श्रद्धा में स्वभाव भी होता, ज्ञान भी होता |
यह भाव तो साधारण प्राणी का,
जिसमें देह का अभिमान होता |
ऐसे प्राणी की श्रद्धा,
कर्मों के अनुरूप होती |
जैसे जिसके कर्म होते,
वैसा उसका स्वभाव होता |
जैसा जिसका स्वभाव होता |
वैसा ही अन्त:करण होता |
ऐसे में जिसकी जैसी श्रद्धा होती,
वैसा ही वह स्वयं होता |'
'सात्विक भाव मयी
देवताओं को पूजता |
राजसी भाव मयी
यक्ष-राक्षसों को पूजता |
और तामस भाव मयी
भूत-प्रेतों को पूजता |
जैसे देव होते,
वैसा ही पुजारी होता |
वही रूप, गुण
वही स्थिति पाता |'
'जो तप शरीर को कष्ट पहुँचा कर,
इन्द्रियों को पीड़ित कर किया जाता
वह शास्त्र-विधि रूप नहीं होता |
वह केवल मन कल्पित होता,
दम्भ-अहंकार-युक्त होता |
आसक्ति-कामना-बल-युक्त होता |
शरीर को कष्ट पहुँचा कर,
अन्त:करण में स्थित मेरे अंश को तड़पा कर,
वह बोध शक्ति से रहित,
मूढ़-प्राणी जन अज्ञानी होता,
वे आसुर स्वभाव युक्त होता |'
'हे अर्जुन !
यह स्वभाव स्थिति
बहुत विचित्र |
कर्म ही नहीं
भोजन भी स्वभाव-प्रेरित
होता |
तीन रूप प्राणी के
तीन भाव का भोजन होता |'
'यज्ञ-दान व तप के
भी तीन भेद ही होते |
अन्त:करण की
स्थिति में
भोजन-यज्ञ-तप-दान
सभी का बहुत योगदान |
ऐसे में तू
इन सबकी प्रकृति जान |'
'आयु-बल बुद्धि
आरोग्य-सुख-प्रीति जो बढ़ाये,
ऐसा आहार ही सात्विक मन को भाये |
रस युक्त-चिकने पदार्थ,
ओजमयी, प्रीतिवर्धक आहार,
मन को प्रिय लगें |
सात्विक गुण युक्त मन में सात्विकता बढ़ायें
यही आहार मन ग्रहण करे |'
‘कड़वे- खट्टे-लवणयुक्त
गरम-तीखे-रूखे-दाहकारक
खाते समय रूचिकर लगें ,
पर तन-मन में दु:ख दें ,
चिन्ता उत्पन्न करे,
रोगों को जन्म दें |
वह रूचिकर लगें राजसी पुरूषों को |'
'अधपका भोजन,
रसरहित-दुर्गन्ध युक्त
बासी-अपवित्र भोजन
तामस भाव युक्त पुरुषों का प्रिय हो |'
फल वही अच्छा
जो पूरी तरह पका हुआ |
अग्नि के संयोग से,
हवा से
या बेमौसम से
सूखा हुआ फल
भोजन तामसी कहलाए |
स्वभाव से दुर्गन्धयुक्त
भोजन,
बीती रात का भोजन
विकृति उत्पन्न करे |
माँस-मदिरा निषिद्ध
न माने जो
वह तामस भावमयी कहलाए |'
भोजन के भेद से
स्वभाव की पहचान हो |
मन में बसी इच्छाओं
की पहचान हो |
'तीन भेद भोजन के
अब तीन भेद
यज्ञ के बतलाता हूँ |'
'शास्त्रविधि से नियत यज्ञ
करना ही कर्तव्य है |
वर्ण-आश्रम का जो कर्तव्य निभाता,
शास्त्र विधि से नियत वही यज्ञ कहलाता |
मन दृढ़ - निश्चय युक्त हो,
निष्काम भाव स्थित मन में हो,
अपने कर्तव्यों का पालन हो,
वही यज्ञ सात्विक हो |'
'आस्था न हो यज्ञ की,
पर यज्ञनिष्ठ होने की चाह हो,
जग दिखावे की इच्छा हो
दम्भ युक्त भाव मयी यज्ञ यह कहलाता |
लोक-परलोक के सुखों की कामना
लिए यह यज्ञ
शास्त्रविहित-श्रद्धापूर्वक होने पर भी
राजसी-यज्ञ कहलाता |'
'शास्त्रविधि रहित यज्ञ,
मनमाने रूप में कर्म
कर्मो के प्रति अश्रद्धा ,
नियम-मन्त्र से रिक्त,
केवल अहम् भाव से युक्त
अपनी इच्छापूर्ति को,
बिना लोकहित हेतु दान
बिना लोकहित की श्रद्धा के
केवल अपने स्वार्थ को
ज्ञानशील ब्राहम्ण
के प्रति मन में न हो,
आदर भाव,
वह यज्ञ,
वह यज्ञपात्र तामसी कहलाता |
ऐसा व्यक्ति दम्भी-मूढ़ भाव युक्त कहलाता |
वह मान-मद-मोह जाल में फँसा होता |
वह तामसी होता |
उसका यज्ञ कभी सफल न होता |'
'पवित्रता
सरलता
ब्रह्मचर्य
अहिंसा का पालन,
देव-गुरु,
माता-पिता
और बड़ो का,
ज्ञान योगी,
कर्मयोगी सभी का
यथायोग्य आदर ही कर्तव्य,
यही इस देह का तप कहलाता |
यही इस देह को पवित्रता प्रदान करता |'
'निन्दा-चुगली से दूर रह,
वाणी में उद्देग न हो,
प्रिय लगें सभी को जो वचन,
हित में सबके स्थित हो मन, वचन,
वेद-शास्त्रों का अध्ययन,
प्राणी मात्र का हित ही हो प्रायोजन,
ईश्वर के नाम का हो उच्चारण
वह वाणी को मृदुल रखे,
वाणी शुद्ध पवित्र बन जाए,
इसीलिए यह वाणी का तप कहलाए |'
'निर्मल हो मन,
चित्त रहे प्रसन्न,
मन सदा शाँत-शीतल रहे,
प्रभु-चिन्तन में हो ध्यान-मग्न,
मौन रहे, मुस्काता रहे,
अन्त:करण स्थिर हो, वश में हो,
दया-क्षमा-प्रेम-विनय का
विकास हो मन में ,
मन दोष रहित हो जाए,
मन पवित्र हो जाए,
ऐसा तप मानस-तप कहलाए |'
'जो प्राणी
सुख भोग की
या
दु:ख की निवृति रूपी
फलेच्छा न करता,
निष्काम भाव से
मन-देह-वाणी के तप से
पवित्र होता,
वह श्रद्धा-प्रेम से युक्त होता |
उसका तप सात्विक होता |
वह सात्विकता की पदवी पाता |'
'जो तप
स्वयं को सत्कार-मान-पूजा हेतु होते,
जो तप स्वार्थ प्रेरित होते,
दम्भ भाव से युक्त होते
जग-दिखावे के लिए होते,
वे तप राजसी कहलाते |
ऐसे तप का फल भी तो निश्चित न होता |
जो कुछ मिलता वह भी क्षणिक होता |
ऐसा तप मन को भटकाता |'
'तप तामस होता
जब मूढ़ भाव से,
हठ से,
मन-वाणी-देह की पीड़ा से,
दूसरे के अनिष्ट हेतु
जिसका प्रायोजन होता |
तामसी भाव का तप वर्जित है,
वह शाँति -पवित्रता-सरलता नही,
मूढ़ बुद्धि बनाता, जीवन की दुर्दशा का कारण होता |'
'अब तीन भेद दान के जानो,
अपने जीवन का कर्तव्य पहचानो |
वर्ण आश्रम-अवस्था-परिस्थिति
के अनुरूप दान देना कर्तव्य सभी का |
देश-काल-जाति का बन्धन न हो,
आतुर दशा ही पहचान हो |
बदले में उपकार पाने कि इच्छा न हो,
अपना स्वार्थ भी मन में न हो,
सामर्थ्य-अनुरूप जो दान दे,
भूखे को अन्न,
प्यासे को पानी,
नंगे को वस्त्र,
रोगी को औषधि,
अनाथ को आश्रय,
यह सब सात्विक दान कहलाता |
प्राणी यह कर्तव्य निभा सात्विकता की श्रेणी पाता |'
'जो दान किसी के
हठ-भय के बल पर,
मन में विषाद-दु:ख पाकर,
निरुपाय होकर दे
या फिर
उपकार पाने कि इच्छा से,
काम मिलने की आशा से,
स्वार्थ-साधन की भावना से दिया जाता,
वह दान राजस कहलाता |
ऐसे दान से
मान- बढ़ाई -प्रतिष्ठा-प्रशंसा तो मिल जाती,
वह पर क्षणिक होती,
वह राजसी भाव युक्त होती |'
'जो रूखे मन से दान करे ,
दान दे, तिरस्कार करे,
कडवे वचन कहे,
अनादर करे,
अपमान करे |
जिसे दान की नहीं जरुरत,
ऐसे प्राणी को दान दे,
जिसका पेट भरा हुआ,
तन वस्त्रों से ढ़का हुआ,
जिसके पास
कमी नही धन की,
ऐसे प्राणी को
दम्भ भाव से,
अहित करवाने के भाव से
निन्दा भाव से,
पाखण्ड भाव से
दिया दान,
तामसी दान कहलाता |
वह दान नरक का भागी बनाता |'
'ऊं, तत्, सत्,
तीन नाम
सच्चिदानन्दन ब्रह्मा के |
ब्रह्मा से उत्पत्ति हुई |
प्रजापति ब्रह्मा की |
आदि काल में ब्रह्मा से
उत्पन्न हुए
समस्त ज्ञानीजन,
वेदों में रचे
समस्त कर्तव्य कर्मों के विधान,
और
समस्त यज्ञ-तप-दान |'
'कर्ता-कर्म और कर्मविधि से
सृष्टि का निर्माण हुआ |
वेद मन्त्र हैं विधान सभी,
यही श्रेष्ठ पुरूषों की
जीवनbचर्या सचांलित करते |'
‘ऊँ पवित्र नाम परमात्मा का
ऊँ शब्द के उच्चारण से
समस्त कर्तव्य कर्म आरम्भ होते |
शास्त्र विधि युक्त समस्त
यज्ञ-दान-तप संचालित होते |'
'तत् नाम परमात्मा का |
समस्त जगत की उत्पत्ति का कारण,
समस्त जगत का वही आधार |
कर्म यज्ञ-ज्ञानयज्ञ
वाणी-शरीर व मानस तप
का मानव बस निमित्तमात्र |
अहम्-ममता-कामना-आसक्ति का
करके सर्वथा त्याग,
कल्याण होगा,
तत् में स्थित होगा
मन का हर भाव |'
'सत्,
सत्य भाव परमात्मा का |
उसका अस्तित्व सदा रहता,
वह अविनाशी,
वह इस सृष्टि का श्रेष्ठ भाव |
शास्त्र विहित सब शुभ कर्मो का
निष्काम भाव से पालन हो
सतकर्म यज्ञ वह कहलाए,
वही ईष्ट भाव से परमात्मा के
प्राणी का मेल करा जाए |
यज्ञ-तप-दान में निष्ठा स्थापित रहे,
कर्म समस्त सत् का रूप
वही ईश्वर का रूप बन जाए |'
'हे अर्जुन!
श्रद्धा भाव का महत्व बड़ा |
श्रद्धा बिना यज्ञ-तप-दान
और समस्त कर्म
समस्त दु:खों का कारण होते |
शुद्ध अन्तकरण से
स्वयं को निमित्त मात्र मानो |
शास्त्र विहित कर्म
ऊँ-तत्-सत्-भाव
से प्राणी का मिलन कराते |
वे ही कल्याण कारक होते |