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कविता में गीता
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देवासुर सम्पद विभाग योग
ISBN: 81-901611-05

 देवासुर सम्पद विभाग योग



'ईष्ट के वियोग
और
अनिष्ट के संयोग की आशंका,
मन में उत्पन्न करती कायरता |
भय होता प्रतिष्ठा का,
भय होता अपमान का,
रोग- मृत्यु का भय
मन में घर कर जाता |
इसका अभाव हो जिसके मन में
वह अभय कहलाता,
वही मन सात्विकता पाता |'

'अन्त:करण शुद्ध हो जिसका,
मन में हो निर्मल विचार,
राग-द्वेष-हर्ष-शोक
ममता-अहम् का सर्वथा
अभाव हो जाता,
वह परमात्मा का यथार्थ रूप
पहचानता,
उसे पाने को निरन्तर यत्न करता,
वह ज्ञान योगी होता,
वह सात्विक भाव लिए होता |'

'कर्तव्य भाव हो मन में जिसके,
निष्काम भाव से
अन्न-वस्त्र-विद्दा-
अर्जित करता,
प्रेम से भूखे को
अन्न देता, वस्त्र देता,
विद्दा का ज्ञान देता
वह दानशील कहलाता |
वह सात्विकता की श्रेणी पाता |'

'मन इन्द्रियों को विषयों से
दूर करता,
ईश्वर-पिता-माता
अतिथि-महात्मा-गुरुजन
की पूजा जो करता,
यज्ञ पालन जो करता,
वेद-विधान का अध्ययन करता,
ईश्वर का चिन्तन जो करता,
स्वधर्म पालन के लिए जुटा रहता,
शरीर-इन्द्रिय-और अन्त:करण में जिसके
सरलता होती,
वह शुद्ध भाव मयी होता,
वह सात्विक पुरूष होता |'

'बुरे की चाह न होती मन में,
वाणी में शुद्ध वचन होते,
शरीर से कष्ट न देता,
अपकार के बदले उपकार ही देता
क्रोध-अहम् से दूर होता,
चित्त जिसका अशाँत न होता,
निन्दा भाव से दूर जो होता,
प्रायोजन बिना दया भाव होता,
आसक्ति -प्रमाद का अभाव होता,
शास्त्र-नीति युक्त रहता,
कोमलता पूर्ण व्यवहार होता,
व्यर्थ चेष्टा का अभाव होता,
वह सात्विक भाव युक्त होता |'


'श्रेष्ठ पुरूष का तेजस्वी भाव,
क्षमा-धैर्य-शुद्ध अन्त:करण,
शत्रु भाव से विरक्त,>>>
पवित्र-व्यवहार
और सबसे ऊपर
स्वयं को पूज्य मानकर,
मान-प्रतिष्ठा की इच्छा,
अभिमान का भाव
मन में न हो जिसके,
वह दैवी-सम्पदा युक्त
पुरूष होता |'

'हे अर्जुन!
यही उत्तम पुरूष के लक्षण,
यही उत्तम पुरूष का जीवन |'

'हे पार्थ !
मान-बड़ाई-पूजा-प्रतिष्ठा का ढोंग जो करता,
ज्ञानी-महात्मा कह स्वयं को प्रसिद्ध जो करता,
अहम् भाव से युक्त वह दम्भी कहलाता |'

'विद्दा-धन-कुटुम्ब,
जाति-अवस्था-बल का सम्बन्ध,
दूसरे को तुच्छ मान करता जो घमण्ड |
मन-इच्छा-पूर्ति का अभिमान जिसे रहता,
मन-विरुद्ध होने पर जिसे क्रोध होता,
कर्तव्य का विवेक नष्ट हो जाता,
कोमलता का मन से अभाव हो जाता,
क्षमा-दया का भाव न रहता,
हिंसा-क्रूरता-मन में कठोरता रहती,
सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का भाव न रहता |
अज्ञान भाव युक्त वह प्राणी
आसुर स्वभाव युक्त कहलाता |'

'हे अर्जुन !
तू शोक न कर |
तू दैवी-सम्पदा युक्त भाव लिए जन्मा |
यह दैवी-सम्पदा मुक्ति दिलवाती |
आसुरी-सम्पदा युक्त मानव
बन्धन में इस संसार के बँधा रहता |
न छूटना चाहता, न छूटने का यत्न करता |'

'हे अर्जुन !
सृष्टि में दैवी-सम्पदा युक्त प्राणी भी,
सृष्टि में आसुरी-सम्पदा युक्त प्राणी भी |
दैवी-सम्पदा शुद्ध-सात्विकतामयी |
आसुरी सम्पदा की माया अब मैं तुझको
सुनाता हूँ |'

'एक ही धर्म मनुष्य मात्र का,
लोकहित कर्म में प्रवृत्त रहने का |
सदा-सर्वदा अकर्मव्यता से
निवृत्त रहने का |'

'आसुरी स्वभाव
न प्रवृत्ति रखता कर्म की,
न निवृत्ति भाव भी मन में रखता
न भीतर-बाहर की शुद्धि रखता,
न शुद्ध आचरण होता
और न सत्य भाषण ही होता |
वह मिथ्याचारी होता,
वह दुराचारी होता |'

'वह जगत को आश्रय रहित कहता,
न ईश्वर आधार, न सत्य |
यह जीव स्त्री-पुरूष के संयोग से जन्मा,
'काम' ही इसका कारण
नहीं और कोई प्रयोजन |'

'नास्तिक भाव लिए मानव,
आत्मा की सत्ता न स्वीकारे |
वह केवल इस देह की सत्ता स्वीकारे |
इस मिथ्या ज्ञान को ज्ञान माने |
इसे जीवन का आधार माने |'

'वह भौतिक जगत
में ही सुख खोजता,
स्वभाव सरलता खो देता,
मन्द बुद्धि से निश्चय होता,
भोग-सुख ही लक्ष्य होता |
अपने हित में
सब कर्म करते |
लोकहित नहीं अहित का सोचे |
उपकार नहीं अपकार की सोचे |'

'समस्त कर्म में अहम् महान |
मन-बुद्धि का एक ही कर्म,
विनाश हो जाए
चाहे जगत का,
पूरे हो जाए सब मेरे
काम |
वह स्वयं को पूज्य माने,
धन-मान-प्रतिष्ठा ही श्रेष्ठ माने |
रूप-गुण-जाति
के नशे में चूर
स्वयं को श्रेष्ठ माने |'

'इच्छा- आकाँक्षा उसकी असीम,
मिथ्या-भाव में वह जीता,
भ्रष्ट-आचरण ग्रहण किए,
वह इच्छापूर्ति में रत रहता |
वह चिन्ता मग्न रहता |
उसे सदा 'कल' की चिन्ता रहती |
वह विषय-भोग में रत रहता |
वह विषय-संग्रह में रत रहता |
'और अधिक सुख' की इच्छा रहती,
जो सुख मिला, वह भोगता
पर कभी आनन्द न पाता |'

'जीवन तो उसका कल की चिन्ता में डूबा रहता |
अपना आज तो बीत जाता,
मृत्यु-पर्यन्त तक चिन्ता रहती,
कब क्या होगा, कैसे होगा ?
कौन मेरे साथ होगा ?
मेरे इस सुख-संग्रह का क्या होगा ?
वह कल्पनाओं में जीता,
वह आशाओं के दीप जलाए रहता |
वह एक आशा से दूसरी |
दूसरी से तीसरी
असंख्य आशाओं के बन्धन में
फँस जाता |
विषय-भोग में काम-क्रोध
का आश्रय होता |
धन-संग्रह की चिन्ता रहती,
न्याय-अन्याय
हित-अहित
किसी और का नहीं,
बस अपना न्याय,
और अपना हित,
जीवन का लक्ष्य होता |'

'हर क्षण एक ही
मान रहता |
आज यह पा लिया,
अब यह भी मैं
पा लूंगा |
एक इच्छा पूर्ण हुई,
मेरे पुरूषार्थ से ही
पूर्ण हुई,
अब मैं दूसरी पाने का यत्न करूँगा |
अब इतना धन संग्रह कर लिया,
कल इतना मैं कर लूँगा |
पल-प्रतिपल मैं आगे बढूँगा ,
ऊपर उठूँगा |
हर इच्छा- आकाँक्षा की पूर्ति करूँगा |'

'वह शत्रु मेरा, मैंने उसे परास्त किया |
मैं अपने हर शत्रु का नाश करूँगा |
जो मेरी राह में आएगा,
जो मेरे ऐश्वर्य को घटाएगा
मैं उसका नाश करूँगा |
मैं ही ईश्वर हूँ ,
मैं ही नियन्ता |

मैं सुख-साधन जुटाता,
मैं ही इसे भोगता |
मैं सब सिद्धियों का ज्ञाता,
मैं बलवान
मैं ही सुख- प्रदाता |
मैं धनी बहुत,
मित्र-बन्धु-कुटुम्ब मेरा
है बहुत बड़ा |
मेरी एक आवाज पर
विश्व खड़ा |
मैं प्रसन्न तो यज्ञ करूँगा |
सुख कामना में मौज करूँगा |
जो मेरा हित करेगा,मैं उसे दान दूँगा |
मैं आनन्द लूँगा ,
मैं जीवन-पर्यन्त अब मौज करूँगा |'

'यह अज्ञान-जनित मोह,
यह जाल उसे बाँधे रहता |
विविध विषयों में चित्त
भटका रहता |
वह इस मोहजाल मेंफँसा रहता |
विषय भोग जीवन का ध्येय,
वह इच्छा-पूर्ति के मद में फँसा रहता |
वह आसक्ति में डूबा रहता,
वह दम्भ-मद-काम-क्रोध का साथी रहता,
ऐसा आसुर स्वभाव अपवित्र भाव लिए
नरक का वासी होता |
वह परम सुख से परे होता,
वह जीवन पर्यन्त भटकता रहता |'

'मैं यज्ञ करूँगा,
मैं दान दूँगा |
मैं दानी बडा सबसे,
मैं महायज्ञ हूँ करवाता |'
यह भाव दम्भ से प्रेरित |
यह भाव स्वयं को सर्वोपरि, श्रेष्ठ मानने वाले
मद-आसक्ति में डूबे,
धन-मान के गर्व में डूबे,
आसुरी-सम्पदा युक्त प्राणी के |'

'नाम-दर्शन में यज्ञों का प्रतिपादन करते,
नाम की महिमा में शास्त्र विधि रहित
पूरे ढोंग से यज्ञ का आयोजन करते |
वे तामस-यज्ञ कहलाते,
वह ईश्वर-भक्ति के लिए नहीं,
स्वार्थ-सिद्धि के निमित्त होते,
जग में अपनी प्रतिष्ठा हेतु होते |'

'आसुरी सम्पदा युक्त पुरूष
अहंकार में डूबे,
बल-कामना-
मद-काम-क्रोधसे प्रेरित
दूसरों में केवल दोष खोजते,
दूसरों के गुणों का खण्डन करते,
दूसरों की निन्दा करते,
औरों की बात क्या
वह सन्त-महात्मा के निन्दक होते,
ईश्वर में भी दोष ढूँढते |'

'द्वेष भाव से युक्त
ये प्राणी पापाचारी कहलाते,
ये क्रूर कर्मी कहलाते |
वे बार-बार जन्म लेते,
बद से बदतर योनियों में
बार-बार जन्म लेते |
मोह-काम-क्रोध-लोभ
के वश में रहते |
ये काम-क्रोध और लोभ भाव,
आत्मा को अन्धकारमयी बनाते,
उसे मूढ़ योनि मे ढ़केलते
जीवन को दुख:मयी बनाते |'

'सारे अनर्थो
के मूलभूत
काम-क्रोध-लोभ ही
समस्त अधोगति का कारण हैं |
इन्हे त्याग दो,
इन्हे त्यागना ही
जीवन की दुर्दशा
का निवारण है |

हे अर्जुन!
इन तीनों नरक के द्वारों से
मुक्त पुरूष,
अपने कल्याण हेतु करता आचरण |
वह परम गति को पाता|
वह मुझे प्राप्त हो जाता |
वह दैवी सम्पदा युक्त होकर
इस जीवन से मुक्ति पा लेता |'

'जो पुरूष शास्त्रविधि का त्याग करते,
मनमाना आचरण करते
वह न सिद्धि पाते,
न सुख पाते,
न शाँति कहीं मिल पाती
वह परम गति नहीं
अधोगति के भोगी बनते |'

'हे अर्जुन !
तू शास्त्र- सम्मत हो कर्म कर |
यह शास्त्र कर्तव्य का भेद बतलाते,
यह शास्त्र ही कर्म का निर्धारण करते |
तू निष्काम भाव से कर्म कर |

हे अर्जुन!
निष्काम कर्म ही शुभ कर्मो का हेतु होता
वही ईश्वर प्राप्ति का साधन होता |'