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कविता में गीता
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पुरुषोत्तम योग
ISBN: 81-901611-05

 पुरुषोत्तम योग



‘सृष्टि का मूल जानो |
सृष्टि का स्वरूप पहचानों |'
श्री भगवान बोले,
'जीव
और
आत्मा
का नियन्ता पुरूषोतम |
यह सर्वव्यापी-अन्तर्यामी,
गुण-प्रभाव-रूप जो समझे
वही ज्ञानी |
यह संसार पीपल के वृक्ष समान |
उत्पत्ति-विकास में पुरूषोत्तम का योगदान |
अलौकिक-अविनाशी स्वरूप में
ईश्वर मूल कारण
उसी का में सृष्टि योगदान |'

'आदि पुरूष पुरूषोत्तम से
ब्रह्मा का हुआ निर्माण |
वेद शास्त्र हर शाख के पत्ते,
वेद मन्त्रों ने फूँके प्राण |
यह सब माया
परमेश्वर की |
उसी ने रचा
यह विधान |'

'वेद मन्त्र ही
जीवन देते,
जीव को यही नियन्त्रित करते |
वेद रूप से चले
समस्त दृश्य जगत का विधान |
उत्पत्ति-वृद्धि और क्षय
सृष्टि का,
कारण और निवारण
सृष्टि का,
वेद मन्त्र में रचा विधान |
इसे तू ईश्वर के
नियम ही मान |
मूल रूप से प्रकृति
के सिद्धान्त को
जान |'

'यह संसार वृक्ष
त्रिगुण भाव मयी,
सत्-रज-तम भाव युक्त
और
शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध
रूप युक्त विषय भोग रूपी कोपलों
से सर्वत्र फैला है |
देव-गण-मनुष्य-रूप में
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में
ऊपर से नीचे तक,
सर्वत्र व्याप्त हैं शाखाएँ |'

'मनुष्य कर्मो से बँधा ,
मोह-ममता-आसक्ति - कामनाओं
रूप इस वृक्ष की जडों में बँधा |
बार-बार जीवन पाता,
वासनाओं के घेरे में घिरा रहता |
विभिन्न लोकों में, समस्त भोगों में
है लिप्त रहता |'

'यह संसार- वृक्ष
प्रतिक्षण परिवर्तनशील |
आदि-अन्त और स्थिति
समझ सकते |
पर तत्व ज्ञान मिले तो जाने
कल्प के आरम्भ से
कल्प के अन्त तक
यह कितने रूप बदल चुका |'
'अविद्दा-ममता और वासना
मूल रूप से विद्दमान |
प्रतिक्षण दृढ़ हो जाएँ,
प्रतिक्षण वृद्धि को पाएँ |
इस वृक्ष में फैली
इन ममतामयी जड़ो को,
इन वासनामयी जड़ो को,
ज्ञानमयी होकर
जब तक तुम न काटोगे,
तब तक इस संसार वृक्ष
के मूल को न पाओगे |
वेदमयी होकर खोजो,
वेद मन्त्र से भाव को जानो,
मोह-ममता-आसक्ति - कामना
से वैराग्य स्थापित करो |
वैराग्य पाकर ही तुम
उस परम पद रूप परमेश्वर
को खोज पाओगे |'

'मनन करो,
चिन्तन करो,
ईश्वर के गुण-प्रभाव का,
सृष्टि के मूल रूप का विज्ञान समझो |
जान गए तो
लौट कर फिर इस संसार में न आ पाओगे |
उसी परम-पुरूष परमेश्वर की,
उसी आदि नारायण की शरण पाओगे |
यह दृढ़ - निश्चय कर मनन करो,
अभिमान-रहित होकर उसी का चिन्तन करो |'

'जिसका मान-मोह नष्ट हो गया,
जो जाति-गुण- ऐश्वर्य - विद्दा के अहम् से परे हो,
जो अविवेक-प्रतिष्ठा का लोलुप न हो,
जो आसक्ति भाव से भोगों में रत न हो,
जो नित्य-स्थित हो जाए परमात्मा में,
कामनाओं के विकार से जो ग्रस्त न हो |

सुख-दु:ख के द्वन्द्व से मुक्त हुआ
मूढ़ - भाव-अज्ञान भाव से मुक्त हुआ
ज्ञानी जन
अवश्य ही सर्वशक्तिमान-अविनाशी
परमप्रिय परमात्मा की माया के विस्तार
से बने संसार रूपी वृक्ष से
विरक्त होकर,
उसी परमप्रिय को प्राप्त हो जाएगा |'

'परमपद प्राप्त कर
ऐसा ज्ञानी जन,
लौट कर पुन: जीव शरीर नहीं पाएगा |
वह इस संसार से मुक्त हो जाएगा |
उस प्रकाशमयी
परम पद प्राप्त ज्ञानी को
मेरा नित्यधाम प्राप्त होगा |
वह दिव्य-चेतन-सच्चिदानन्दमय
मेर स्वरूप बन मुझमें ही लीन हो जाएगा |'

'ऐसे परम प्रकाशमयी
को न सूर्य प्रकाशित कर सकता,
न चन्द्र रोशनी दे सकता,
न अग्नि प्रज्ज्वलित कर सकती |
मेरा परमधाम प्रकाशमयी,
सबका वह प्रकाश-स्त्रोत |
ज्ञानमयी होकर ज्ञानी वह
स्वयं प्रकाश
पुन्ज बन जाता |

प्रकाशमयी को
किसी और के
प्रकाश की
ज्योति
भला कैसे प्रकाशित
कर सकती ?'

'इस स्थूल शरीर में
जीवात्मा मेरा अंश बनी |
यही जीवन दायिनी
यही चेतनता प्रदायिनी |
मैं चेतन,
समस्त जीव चेतनता पाते |
जड़-चेतन के संयोग से
प्राणी चेतनता ही पाता |
यही आत्मा सदा सनातन,
यही अनादि-नित्य कहलाती |'

'जीवात्मा से बँधी हैं
सभी इन्द्रिँया और मन |
प्रकृति के एक रूप से
प्रकृति के दूसरे रूप में
आत्मा साथ ले जाती
पाँचो इन्द्रियों और मन को |'


'मन-इन्द्रिय सभी चेतनता के
साथी बने
आत्मा नहीं तो
मन कैसा?
मन नहीं।
इन्द्रियों का रूप कैसा ?
मन का बन्धन
इन्द्रियों का आकर्षण
आत्मा के स्वरूप बिना,
कहीं नहीं आकर्षण
आत्मा के स्वरूप बिना,
कहीं नहीं आकर्षण |
वायु जैसे गन्ध ग्रहण
कर लेती,
जहाँ वायु जाती,
वही गन्ध ले जाती |
वैसे ही इस स्थूल देह
की स्वामी आत्मा,
देह त्याग,
वायु बनकर
मन सहित सभी इन्द्रियों
को ग्रहण कर लेती,
अपनी चेतनता में रख लेती
और नए परिवेश में,
एक नए रूप में
किसी नए स्थूल भाव में,
संयोग स्थापित करती,
स्वयं प्रवेश करती,
साथ में उसी मन,
उसी इन्द्रियों की गन्ध
भी ले आती |
वह नया रूप पा लेती |
मन तो फिर भी वैसा ही
वैसी इन्द्रियों की गन्ध रहती |'

'यह जीवात्मा
मन,
श्रोत्र-त्वचा-चक्षु-प्राण-रसना
का आश्रय पाता |
मन बुद्धि और इन्द्रियों का
भोक्ता बन जाता |'

'वास्तव में जानो
तो आत्मा न तो कर्मो का कर्ता है
न ही विषय सुख-दु:ख का भोक्ता है |
यह अज्ञान जनित अनादि सम्बन्ध है
जो कारण है,
इस के कर्तापन का,
इस के भोक्तापन का |
इस तत्व भाव को केवल
ज्ञान रूप नेत्रों वाले ज्ञानी जन
ही जान पाते |'

शरीर को त्यागते हुए,
शरीर में स्थित रहते
और
विषयों को भोगते हुए
अज्ञानी जन क्या जाने
कि
यह आत्मा तो
प्रकृति से सर्वथा अतीत,
शुद्ध बोध स्वरूप और
असंग भावमयी है |'

'नित्य-शुद्ध-विज्ञान आनन्दमयी
आत्मा को यथार्थ रूप से जानते
योगीजन |
शुद्ध अन्त:करण नहीं जिनका,
मन मलिन भाव से युक्त,
शुद्ध भावमयी न हो जब तक मन
जान न पायें यत्न करके भी
आत्मा के तत्व भाव को |'

'समस्त जगत को प्रकाशित करता
तेज सूर्य का |
तेज चन्द्र में स्थित जो,
अग्नि के प्रकाश को
मेरा तेज ही मान |
मन-वाणी-नेत्र में प्रकाशित तू मेरा तेज ही जान |'

'विश्वव्यापिनी पृथ्वी की
धारण शक्ति
मेरे आत्म रूप का अंश बनी,
अमृतमयी स्वरूप चन्द्र का
मेरा रसमय रूप बना |
ज्योत्सना मेरी से
समस्त पत्र-पुष्प-फल
गुण पाएँ ,
औषधि रूप में
समस्त जगत की पुष्टि करें |'

'मैं प्राणी जगत में
स्थित प्राण और
अपान से युक्त
अग्नि भाव से
अन्न पचाता |'

'मैं सबके ह्रदय में स्थित हूँ |
शुद्ध अन्त:करण से प्रत्यक्ष दर्शन देता हूं
यथार्थ भाव को समझने का ज्ञान मुझसे है |
संशय भाव का निराकरण मुझसे
और मन में स्मृति भाव का विकास मुझी से है |'

'वेद-ज्ञान में रचे सभी विधान मैंने |
मेरे भाव को समझे जो
वेद-ज्ञान वही समझ सकता |
वेदों में समन्वय स्थापित कर
मैं शाँति प्रदान करता |
मैं वेद भावों का कर्ता
और ज्ञाता |
मेरा स्वरूप, मेरा ज्ञान
यथार्थ भाव से वेदों का तात्पर्य समझा सकता |'

'इस संसार में
दो रूपों में विराज मन पुरूष तू जान!
एक वे जो नाशवान हैं |
और दूसरे अविनाशी तू मान |
सम्पूर्ण जगत में स्थित प्राणियों के शरीर
ये नाशवान, और
जीवों में स्थित आत्मा को तू अविनाशी मान |'

उत्तम पुरूष वही
जो इस
क्षर-अक्षर को धारण करके,
समस्त प्राणियों का पालन करता |
वह लोकहित हेतु कर्म करता |
ईश्वर भाव वही समझ सकता |'
'क्षर-अक्षर से उत्तम स्वरूप जिसका
तीनों लोकों में निवास जिसका,
जो कभी नष्ट नहीं होता,
सदा निर्विकार
एकरस रहता |
क्षर -अक्षर का
वह नियामक,
वही सबका स्वामी,
सर्वशक्तिमान ईश्वर,
गुणातीत-शुद्ध,
वही ईश्वर,
वही पुरूषोंत्तम कहलाता |'

हे अर्जुन!
मैं इस नाशवान जड़ वर्ग से
सर्वथा सम्बन्ध रहित,
सर्वथा निर्लिप्त |

जीव में स्थित अविनाशी आत्मा
से भी विलक्षण |
मेरा अंश यह अविनाशी-चेतन
स्थित प्रकृति में ,
और मैं इसके गुणों से भी
सर्वथा अतीत हूँ |'

'यह जीवात्मा अल्पज्ञ है,
एक भाव से दूसरे भाव में जाती है |
मैं तो सर्वज्ञ हूँ |
वह नियम्य है,
मैं नियामक हूँ |
वह मेरी अंश, मेरी उपासक है,
मैं उसका स्वामी उपास्यदेव हूँ|
वह अल्पशक्ति सम्पन्न है,
मैं सर्व शक्तिमान हूँ |
तभी मैं इस लोक में,
वेदों में पुरूषोत्तम नाम हूँ |'

'हे भारत!
जो ज्ञानी पुरूष
ईश्वर को क्षर से अतीत
और
अक्षर से उत्तम जान लेता
वह मेरे इस तत्व ज्ञान को जानता है,
वह मेरा पुरूषोत्तम भाव जानता है |
वह सर्वज्ञ पुरूष
मन-बुद्धि से
अपने कर्तव्य कर्मों से सबको
सुख पहुँचाता,
वही मेरा भक्त बन पाता |
वही मुझे स्मरण रखता |'

'हे निष्पाप अर्जुन!
यह अति गोपनीय भाव तू जान |
इसका तत्व तू पहचान |
पुरूषोत्तम भाव को जान कर
मनुष्य ज्ञानवान हो जाता है |
जीवन जीव का कृत्कृत्य
हो जाता है | ''