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कविता में गीता
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परम गोपनिय ज्ञान योग
ISBN: 81-901611-05

 परम गोपनिय ज्ञान योग




श्री भगवान बोले अर्जुन से
'गुणवानों के गुणों को देखो,
गुण में दोष कभी न ढूँढो,
मिथ्या आरोपण न करो,
दोष रहित भक्त बनो तुम
इस उपदेश का अधिकारी वही
ईश्वर की सत्ता में श्रद्धा हो जिसकी |'

'समस्त दु:खों से,
दु:खमयी कर्मो से,
दुर्गुणों से
जन्म-मरण के सांसारिक बन्धन से,
इस बन्धन के अज्ञात से
वही छूट पाता,
जो ज्ञान से, विज्ञान से
इस ज्ञान योग की महिमा समझे,
वह पाप रहित हो जाता |
गोपनीय योग से परिचित होकर,
मोहमाया से मुक्त हो जाता |
वह बन्धन से मुक्ति पा जाता |'


'परम गोपनीय ज्ञान यह,
ज्ञात-अज्ञात सब विद्याओं का ज्ञाता |
परिपूर्ण है विज्ञान से,
अति पवित्र, अति उत्तम,
प्रत्यक्ष फल देने वाला,
प्रत्यक्ष दर्शन ईश्वर का दे जो,
यह धर्म युक्त,
समझो तो अति सुगम |
यह परम अविनाशी |'

'हे परन्तप!
श्रद्धा से यह ज्ञान समझ सकते,
श्रद्धा रहित
यह भाव समझ न पाता |
संशयों से वह घिरा रहता |
राह भटक,
संसार चक्र में वह भटकता |
बार-बार जन्म लेता,
आकर फिर लौट जाता |
भोगों में ही रत रहता,
योग कभी न जान पाता |
ज्ञान भी, विज्ञान भी,
समझ से उसकी परे रहता |
ईश्वर को वह जान न पाता |
ईश्वर को वह पा न पाता |'

'आकाश से जैसे
वायु-जल-तेज-पृथ्वी,
सुवर्ण से गहने,
मिट्टी से बर्तन व्याप्त रहते,
वैसे ही यह विश्व सारा
सगुण-निराकार परमात्मा में व्याप्त सदा |
सब प्राणी जन
मेरे संकल्प में आधार स्थित |
यदि देखो तो वास्तव में
मैं उनमें स्थित नहीं कहीं |
असाधारण योग शक्ति को मेरी देखो
समस्त जगत मुझमें स्थित है
और मैं फिर भी स्थित नहीं कहीं
कारण भी मैं हूँ तुम्हारा,
आधार भी मैं हूँ तुम्हारा |
सर्वव्यापकता
को मेरी समझ,
मैं तुझमें होकर
भी
तुम्हारी स्थिति
से विरक्त हूँ |'

'निर्लिप्त भाव से
इस प्रकृति की
मैंने रचना कर दी |
इस भाव से मैं
विरक्त हूँ |
तुम मानो तुम्हारे साथ हूँ,
तुम मानो तुम्हारे ज्ञान हूँ |
पर मैं होकर भी
तुममें स्थित नहीं हूँ|'

बादलों का
आधार आकाश है जैसे
पर बादल उसमें सदा नहीं रहते |
अनित्य हैं, स्थिर सत्ता नहीं उनकी |
ऐसे में आकाश सदा रहता,
और बादल हैं या नहीं कहीं,
आकाश सदा व्याप्त रहता |
उसकी स्थिरता बनी रहती |

'सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
मेरी योग शक्ति से निर्मित,
प्राणी का आधार वही |
जगत है, मुझसे है |
प्राणी है, मुझसे है |
मैं प्राणी-मात्र से स्थित नहीं |'

'मेरी योग शक्ति को देखो |
प्राणी को धारण करने वाला,
प्राणी का पोषण करने वाला
प्राणी को उत्पन्न करने वाला
निर्लिप्त भाव से कैसे
अपनी स्थिति में स्थित होकर
प्राणी मात्र में स्थित नहीं ||
आकाश से उत्पन्न होकर
वायु सर्वत्र विचरती,
आकाश में सदा स्थित रहती |
मेरे संकल्पों से उत्पन्न प्राणी,
सर्वत्र-सदा मुझमें स्थित रहता |
तब भी इस प्राणी मात्र के
मोह भाव से मैं मुक्त रहता |
इस प्राणी मात्र के विकारों का
सर्वथा मुझमें अभाव रहता |'

'हे अर्जुन!
ब्रह्म की आयु जब पूर्ण होती,
कल्पों का जब क्षय हो जाता,
महाप्रलय के उस काल में,
सब प्रकृति जनित प्राणी
नष्ट हो जाते |
सब मेरी प्रकृति में लीन हो जाते |
कल्प रात्रि के बीत जाने पर,
मैं नई प्रकृति का निर्माण करता |
मैं नए रुप फिर स्थापित करता
फिर से एक नई सुबह होती |
अपनी प्रकृति में नए रुप रचता |
अपने गुण-कर्म-स्वभाव के
बन्धन से जो जकड़ा रहता,
वह नए कल्प में
अपने स्वभाव के अनुरुप जन्म लेता |
वह फिर से
इस सृष्टि के आदि रुप में जन्म लेता |
जब तक मेरी
इस प्रकृति के वश में
प्राणी रहता,
तब तक उसका जन्म होता |
वह हर नई सुबह
हर नयी शाम को
एक नया रूप धरता |
मेरे स्वरूप को जो जान लेता |
मेरी शरण में जो आ जाता,
वह मुझे ही प्राप्त हो जाता,
वह मेरे रूप में ही
समा जाता |'

'हे अर्जुन!
मैं अपनी
सृष्टि-संरचना की
कर्म लीला से
आसक्ति नहीं करता |
प्रकृति रचित जो जैसा
कर्म करता,
जिसके जैसे गुण हो जाते
मैं निर्लिप्त भाव से
उनके कर्मो से उदासीन रहता |
जैसे प्रकृति को रच कर,
उस प्रकृति के हर प्राणी में
बसकर भी,
मैं आसक्त नहीं होता,
कर्म करके भी
कर्म बन्धन में नही बँधता |
मुझे कर्मो के फलस्वरुप
हर्ष-शोक-सुख-दु:ख का
भाव नहीं होता,
वैसे ही प्राणी यदि
ऐसा भाव स्थापित करे
तो वह कर्म बन्धन से मुक्त हो सकता |
मेरी तरह प्रकृति का होकर भी,
कर्मो को निभाकर भी,
मेरे रुप में समा सकता |'

'हे अर्जुन!
मेरी अध्यक्षता में
प्रकृति अपना कर्तव्य निभाती |
मैने प्रकृति को सत्ता-स्फूर्ति प्रदान कीं,
समस्त जगत की उत्पत्ति-स्थिति और
संहार की क्रियाएँ प्रदान कीं |
यह चक्र सदा चलता रहा है,
और सदा चलता रहेगा |'

'मेरी सर्वव्यापकता को न समझ,
मूढ लोग मुझे तुच्छ समझते |
मेरी प्रकृति को मुझसे अलग मानते |
मैं मनुष्य रुप में आया,
लोकहित हेतु |'

'यह लीला रची मैंने
धर्म स्थापना हेतु |
मेरी अवज्ञा करते
अज्ञानता से,
मुझे साधारण पुरुष मानते
अपने अहँ में डूबे |
ऐसे अहँकारी जन,
व्यर्थतम आशाओं में डूबे,
व्यर्थ कर्मो में रत,
विक्षिप्त चित्त, अज्ञान भाव से
अन्धकारमयी स्वरुप दे
स्वयं को ज्ञानी समझते |'

'राक्षसी भाव लिए,
द्वेष भाव से दूसरों का
अनिष्ट करते,
दूसरों को दु:ख पहुँचाते |
काम-लोभ के वश में होकर,
आसुरी प्रकृति में लिप्त हुए,
दूसरों से क्लेश रखते,
उनके स्वत्व हरण में लगे रहते |'

'मोह के वशीभूत होकर,
प्रमाद से प्रेरित हुए
मोहिनी प्रकृति युक्त पुरुष,
अपनी इच्छा पूर्ति मं
दूसरों को दु:ख पहुँचाते|

वे आसुर स्वभाव पर
आश्रित होते |
प्रकृति के स्वरुप से
उलट भाव में स्थित रहते |'

'परन्तु हे कुन्तीपुत्र!
जो दैवी प्रकृति पर आश्रित होता,
वह प्रकृति के स्वरुप को समझता |
वह प्रकृति के अनुरुप चलता |
वह विलक्षण जन मुझे
सब प्राणियों का सनातन कारण जानता |
वह मुझे नाशरहित, अक्षर-ब्रह्म जानकर
अनन्य मन से मुक्त होकर,
मेरे ज्ञान-रस में डूबा,
मेरे कर्म-ज्ञान को जान कर,
मुझमें निरन्तर स्थापित रहता |
मुझको निरन्तर स्मरण करता |'

वह दृढ-निश्चयी होता |
मेरे नाम-गुण का ज्ञान रखता,
उसे सदा स्मरण करता |
मुझे पाने का यत्न करता |
कर्म करता,
लोकहित का चिन्तन करता,
मेरे ध्यान में चित्त लगाता,
मेरी राह पाने को आतुर रहता,
अनन्य भाव से मेरी उपासना करता |'

'ज्ञान योगी
ज्ञान यज्ञ से
अभिन्न भाव से,
निर्गुण-निराकार ब्रह्म की
उपासना करते |
ज्ञानयोगी
कर्तापन के अभिमान से रहित रहकर,
शरीर-इन्द्रिय और मन द्वारा
होने वाले समस्त कर्मो में,
गुणों को गुण ही बरतते,
सम्पूर्ण दृश्यवर्ग को मृगतृष्णा के जल सदृश
समझते |
एक निर्गुण-निराकार परब्रह्म
की सत्ता ही स्वीकारते |
उसी का श्रवण-मनन-चिन्तन करते,
अभिन्न भाव से उसी में स्थित रहते |'

'ज्ञानी जन ऐसे भी होते,
जो सम्पूर्ण विश्व को
ईश्वर से उत्पन्न हुआ मान,
उसी में सभी कुछ व्याप्त है मानते |
विश्वरुप में स्थित मान ईश्वर को,
सूर्य-चन्द्र-अग्नि-इन्द्र-वरुण
एवं सभी प्राणियों को
ईश्वर का स्वरुप मानते |
कर्मो के प्रतिपादन से वे
यथायोग्य निष्काम भाव से पूजा करते |

जो जैसे रुप में
मेरा रुप देखता,
जो जैसा मेरा
स्वरुप समझता
वैसा ही वह मुझको पूजता |'

'सब यज्ञों का आदि भी मैं हूँ,
सब यज्ञों का अन्त भी मैं हूँ |
क्रतु, यज्ञ और स्वधा भी मैं हूँ |

औषधि-घृत और मन्त्र भी मैं हूँ |
अग्नि भी मैं हूँ,
और यज्ञ की सभी क्रियाएँ
मुझसे ही सम्पूर्ण होतीं |
मेरे रुप अनेक,
मैं हर नए भाव में दिखता |
जो जैसा कुछ देखता,
मेरा भाव उसे वैसा ही मिलता |'

'मै कण-कण में हूँ विराजमान,
मेरा रुप रचे नित नए विधान |
सम्पूर्ण जगत है धारण मुझमें |
कर्मो का फल निर्धारित
करना मेरे विधान में आता |
माता-पिता-पितामह के रुप में
मैं सर्वत्र दृष्टिगत होत |'

'जो प्राणी मात्र को विशुद्ध कर दे
वह ओंकार भी मैं हूँ |
ज्ञान का भण्डार रचा जो
वह ऋगवेद, सामवेद और
यजुर्वेद भी मैं हूँ |
सब मेरे की स्वरुप है,
सभी ईश्वर के विभिन्न रुप है |'

'जिसे परम धाम तू कहता,
वह परम धाम है मेरा रुप |
सम्पूर्ण जगत का रक्षण करने वाला,
सबका पालनहार भी मैं हूँ |
समस्त कर्मो का
शुभ-अशुभ भी मैं हूँ |
सब का एक निवास है मुझमें |'

'प्रत्युपकार न चाहकर
उपकार ही करता |
सब का हित हूँ चाहने वाला |
उत्पत्ति-प्रलय का
हेतु सबकी |
सबका आधार-निधान,
और
अविनाशी कारण भी
मैं हूँ |'

'मैं सूर्य से तपता हूँ,
वर्षा का आकर्षण करता हूँ,
उसे धरा पर बरसाता हूँ |
हे अर्जुन!
मैं ही अमृत और मृत्यु भी मैं हूँ |
मैं ही सत्
और असत् भी मैं हूँ |'

'तीनों वेदों के विधान से
चलकर
साकाम कर्म जो करते,
कर्म काण्ड से श्रद्धा व प्रेम करते |
मेरी सर्वरुपता से अनभिज्ञ होकर,
सोमरस का पान जो करते,
पाप रहित होकर,
स्वर्ग प्राप्ति की चाह लिए,
वे मेरी उपासना करते|
वे पुण्य करते, पाप नहीं करते,
बस कामनाओं का अभाव नहीं होता |
वे स्वर्ग लोक को जाते,
देवताओं का सानिध्य पाते,
अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर पाते |
अपने पुण्यों के बल पर
स्वर्ग लोक में आनन्द उठाते |
पुण्यों का हिसाब पूरा कर
लौट धरा पर वापिस आते |'

'एक नया अध्याय
फिर से आरम्भ हो जाता |
वेदों में कहे
साकाम कर्म भाव से,
साधन तो कर लेते साधक,
स्वर्ग को पाने का |
पर भूले रहते
जीवन के मूल तत्व को |
बार-बार का
यह आना-जाना
कभी नहीं रुक पाता |
पुण्य का प्रभाव
स्वर्ग ले जाता,
क्षीण हुआ तो
मानव लौट धरती पर आता |'

'यह चक्र सदा चलता
रहता |
जो अनन्य भक्त
ईश्वर का चिन्तन करते |
निष्काम भाव से
ईश्वर को भजते,
पाप-पुण्य का,
इच्छा-आसक्ति का
अभाव करते,
वे नित्य-निरन्तर
चलते-चलते,
कर्म की राह पर आगे बढ़ते,
मेरे परम धाम में आ जाते |
मुझे स्वयं प्राप्त हो जाते |
सब बन्धन क्षण भर में
छूट जाते |'

'हे अर्जुन!
कामना-सिद्धि को
जो पूजा करता देवताओं की,
वह विधि पूर्वक तभी कहलाती
जब साकाम भक्त
देवता को ईश्वर का ही एक रुप मानता |'

'जो इस तत्व को न समझकर,
देवताओं को ईश्वर से भिन्न मानता,
उसका पूजन अज्ञान युक्त,
अविधि युक्त कहलाता |'

'युक्त विश्व विराट,
विराट रुप ईश्वर का |
प्राणी-देवता-सबका
नियन्ता ईश्वर |
जो इस तत्व को जाने नहीं,
वह ईशवर को न पा पाता |
वह पुनर्जन्म को प्राप्त होता |
वह लौट धरा पर फिर से आता |'

'देवताओं को पूजकर,
देवताओं को पाते |
पितरों को पूजकर,
पितरों को पाते |
देव-पितरों की पूजा
साकाम भाव से युक्त ही होती |
अपना फल देकर नष्ट हो जाती |'

'देवताओं को पूजो,
पितरों को पूजो,
ईश्वर के भाव मान कर पूजो,
निष्काम भाव से पूजो
तभी सहज ईश्वर पाओगे |'

'भूतों को पूजकर,
भूतों को ही पाते |
वे तामसी भाव के पूजक होते,
अनिष्ट फल किसी और का चाहते |
वे मेरी भक्ति की परिधि में नहीं आते |'

मेरी पूजा निष्काम भाव से,
उपसना करो आसक्ति त्याग के,
पुनर्जन्म नहीं, मुझसे मिलन हो जाएगा |
मेरा भक्त निश्चय ही मुझे पाएगा |'

'वर्ण-आश्रम-जाति का भेद नहीं |
भक्त की कोई और श्रेणी नहीं होती |

भक्त बस भक्त ही कहलाता |
बल-रुप-धन-आयु-जाति
गुण-विद्या का भेद नहीं होता |
भक्ति में विश्वास प्रबल होता |
भक्ति में भाव प्रबल होता |'

'प्रेम भाव से
पत्र-पुष्प-फल-जल,
शुद्ध बुद्धि, निष्काम भाव से
जो कुछ भी प्रेम भाव से
मुझको अर्पित कर देता,
मैं प्रेम भाव से ग्रहण करता |
मैं नित नए सगुण रुप धर कर
प्रीति सहित ग्रहण कर लेता |'

'हे अर्जुन!
अर्पण कर अपने कर्म को,
अर्पण कर अपने अन्न को,
अर्पण कर यज्ञ-दान-तप को,
सब अर्पण कर ईश्वर को |'

'समस्त कर्म जो
अर्पण कर दे,
ईश्वर भाव में स्थित हो जाए |
सन्यास भाव मन में
आ जाए,
दृढ-निश्चय के साथ
स्वयं शुभाशुभ कर्मो
से मुक्त हो जाए |
अभाव हो जाए
कर्मफल का,
उसी अभाव में वह ईश्वर
पा जाए |
वह मुक्त हो जाए,
वह ईश्वर को पा जाए |'

'मैं सब प्राणियों में
समभाव रखता,
नहीं किसी से राग-द्वेष,
प्रिय-अप्रिय का भाव नहीं है |
जो मुझे स्मरण करता,
मैं भी उसको स्मरण रखता हूँ |
प्रेम भाव से जो चाह मेरी करता,
मैं प्रेम भाव से उसे मिलता हूँ |
जो मुझमें निष्ठा स्थापित रखते,
मैं उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देता हूँ |'

'अतिशय दुराचारी मेरा स्मरण यदि करता,
शुभ संस्कार यदि जागृत हो उठता,
पापों से आसक्ति त्याग,
मुझे स्मरण करने लगता,
वह साधु भाव को प्राप्त होता |
उसके दृढ-निश्चय को मैं नतमस्तक |'

'मेरे भाव को जिसने जान लिया,
उसे स्वयं आसक्ति से
विरक्ति मिल जाती |
मन द्वेष भाव से मुक्त हो जाता |
वह धर्मात्मा हो जाता,
वह परम शाँति को पा लेता |'

'वह मेरा साधन
अपना लेता,
वह नष्ट नहीं हो पाता |
वह पुन:पथभ्रष्ट नहीं होता |'

'हे अर्जुन!
ईश्वर की भक्ति में
जाति-वर्ण-लिंग-भेद नहीं |
ईश्वर वर्ण भेद नहीं करता |
कर्मो से वर्ण भेद हो सकता |
मेरी भक्ति में जाति-वर्ण-लिंग
का भेद नहीं |
जो भी है वह प्राणी मात्र,
मेरा ही वह अंग है |
अपने अंगों से
मुझे सम प्रेम भाव
मेरे लिए पुरुष-स्त्री,
शूद्ध-वैश्य-ब्राह्मंण
और चण्डाल सभी एक समान,
मेरे भक्त सदा ही महान |

मेरी शरण में जो कोई आता,
वह परम गति को पाता |
वह मेरे धाम चला आता |'

'जब दुराचारी भी
व्यभिचार छोड़
मेरे भक्त बन सकते,
फिर उस ब्राह्मण का क्या कहना,
जो नित्य-निरन्तर मेरी भक्ति में
मग्न रहता |'

'राजा होकर भी जो
ऋषियों-सा करे आचरण,
शुद्ध स्वभाव से करे जीवन-यापन,
वह राजर्षि सदा परम गति को पाते है |'

'सुखरहित-क्षण भंगुर शरीर
को भूल जाओ,
निरन्तर ईश्वर-भक्ति करो,
ईश्वरीय भाव में रत होकर
कर्म करो,
ईश्वर में मन लगाओ,
ईश्वर की आराधना करो,
ईश्वर में आत्मा अपनी स्थित करो,
देखो! स्वयं देखो
ईश्वर स्वयं प्रकट होगा |
ईश्वर भाव जागृत रहेगा
और ईश्वर तुम्हें मिल जाएगा |'