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कविता में गीता
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कविता में गीता
Voice and Text
(1)
गीता धर्म (GITA DHARM)
(2)
गीता निर्माण (GITA NIRMAN)
(3)
अर्जुन विषाद योग (ARJUN VISHAD YOG)
(4)
सांख्य योग (SANKHYA YOG)
(5)
कर्म योग (KARM YOG)
(6)
ज्ञान कर्म सन्यास योग (GYAN-KARM-SANYAS YOG)
(7)
KARM-SANYAS YOG (कर्म सन्यास योग)
(8)
आत्म संयम योग (ATAM-SANYAM YOG)
(9)
ज्ञान विज्ञान योग (GYAN-VIGYAN YOG)
(10)
अक्षर ब्रह्म योग (AKSHAR-BRAHM YOG)
(11)
परम गोपनिय ज्ञान योग (PARAM GOPNIYE GYAN YOG)
(12)
विभूति योग (VIBHUTI YOG)
(13)
विश्व रुप दर्शन योग (VISHWAROOP DARSHAN YOG)
(14)
भक्ति योग (BHAKTI YOG)
(15)
शरीर और आत्मा विभाग योग (SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG)
(16)
गुणत्रय विभाग योग (GUNTREY VIBHAAG YOG)
(17)
पुरुषोत्तम योग (PURSHOTTAM YOG)
(18)
देवासुर सम्पद विभाग योग (DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG)
(19)
श्रद्धात्रय विभाग योग (SHRADHATREY VIBHAG YOG)
(20)
मोक्ष सन्यास योग (MOKSH SANYAS YOG)
(21)
कृष्ण भाव (KRISHAN BHAAV)
ज्ञान विज्ञान योग (GYAN-VIGYAN YOG)
ISBN: 81-901611-05
ज्ञान विज्ञान योग
'हे पार्थ!
अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड हैं
व्याप्त एक ही ब्रह्म में |
ब्रह्म ही नित्य-सत्य और सनातन |
एक ब्रह्म ही
सर्वज्ञ-सर्व व्यापी-सर्वत्र |
प्रकट एक ब्रह्मं योग माया से
एक नहीं अनेक रुपों में |'
'व्यक्त-अव्यक्त,
सगुण-निर्गुण एक ही ब्रह्म |
श्रद्धा से, भक्ति से
अनन्य प्रेम से,
ब्रह्म में तू आसक्त हुआ,
यह योग भाव तेरा सफल हुआ |'
'आत्मरुप सभी का यह ब्रह्मं,
संशय रहित हो कर सुन |
मैं तुझको विज्ञान सहित,
इस तत्व ज्ञान को बतलाता हूं |
ब्रह्म के इस निर्गुण-निराकार का
यथार्थ ज्ञान,
ब्रह्म के इस सगुण-निराकार
और दिव्य-साकार तत्व का
भाव समझाता हूं |
यह विश्व ब्रह्म का एक अंश है |
समग्र रुप जब तू जानेगा,
जानने को शेष कुछ न रह जाएगा |'
'मनुष्य योनी बड़ी दुर्लभ |
अधिकार सभी को ईश्वर की
आराधना का |
जाति-वर्ण-आश्रम-देश की
कोई सीमा नहीं |
ईश्वर की आराधना सब करते |
नए-नए रुप में सब गुणनान करते |'
'कोई एक हजारों में होता,
जो यत्न करता मुझे जानने का |
प्रयत्न करता मुझे पाने का |
ऐसा कोई विरला योगी होता,
जो मेरे तत्व को, मेरे ज्ञान को
पूर्ण भाव से जान सके |'
'संसार का निर्माण हुआ
पृथ्वी-जल-अग्नि-नभ-वायु से |
जीव बन्धन से बंधा,
मन-बुद्धि-अहंकार से |
आठ विषयों से इस
जड़-प्रकृति का निर्माण हुआ |
समस्त जीवों के
शरीर-इन्द्रियों,
प्राण-भोगों में जीवन स्थित है |
इस जड़-चेतन तत्व के
संयोग से
यह विश्व बना है |'
'हे अर्जुन!
समस्त प्राणियों के
उत्पत्ति-स्थिति
और वृद्धि,
इस जड़-चेतन के संयोग से होती |
यह संयोग-वियोग जगत का,
जगत की स्थिरता और प्रलय
ईश्वर में ही यह बार-बार विलीन
हो जाती |
जैसे बादल आकाश में उत्पन्न होते,
आकाश में ही रहते,
आकाश में ही लीन हो जाते |
आकाश ही आधार और कारण है
वैसे ही इस सृष्टि का आधार
इस सृष्टि का कारन ईश्वर है |'
'हे धनन्जय!
ईश्वर ही परम कारण,
ईश्वर ही कर्ता है |
सम्पूर्ण जगत एक माध्यम है |
यह सूत की एक माला है |
मैं तुममे रचा,
तुम मुझमे रचे हो |
ऐसे बंधे हो
कि आदि-अन्त नहीं पता |
कहां से शुरु हुए, कहां को
जाना है |
बस चले हो जीवन की राह में,
इसी पर चलते जाना है |
यही जीवन, जीव का यही ठिकाना है |'
'हे अर्जुन!
मैं जल में रस हूं,
सूर्य-चन्द्र में प्रकाश हूं
आकाश में शब्द,
पुरुष में पुरुषत्व हूं
और मैं ही वेद-ग्रन्थों
में ओंकार हूं |
मैं ही पृथ्वी में पवित्र गन्ध,
और अग्नि में तेज हूं |
सभी प्राणियों में जीवन भी मैं,
और तपस्वियों का तप भी मैं हूं |'
'हे अर्जुन!
सब जीवों की उत्पत्ति मुझसे ही होती है |
सब जीवों की बोधमयी शक्ति भी मैं हूं |
ज्ञान से आकर्षित करे जो तेजस्वी
उसके मुखमण्डल का तेज भी मैं हूं |'
'हे भरत श्रेष्ठ!
बलशाली वही जो
निश्चय से कामना-राग-अहम्-क्रोध
को तज कर बल का प्रयोग करे |
प्राणियों में वही श्रेष्ठ जो शास्त्रानुकूल
'काम' का प्रयोग करे |
मैं ही सम्पादित करता
बलवानों के सामर्थ्य को,
मैं ही सम्पादित करता
विशुद्ध-काम तत्व को |'
'ईशवर की सर्व व्यापकता पहचानो |
ईश्वर की सर्वस्वरूपता पहचानो |
त्रिगुणमय जगत का मूल स्वयं जान जाओगे |'
'मुझसे ही विकसित होते,
मन में बसे सब भाव |
मुझसे ही सभी गुण-अवगुण प्रकट हुए |
सब का सृजन-विस्तार मुझी से होता |
मैं ही मन-बुद्धि-इन्द्रिय विषय में विद्यमान |'
'मैं सब तत्वों का रजो गुण,
मैं सब तत्वों का तमो गुण |
मैं ही सबका सात्विक भाव
मैं समस्त त्रिगुणमय भावों का
कारण-आधार
पर यह गुण मुझमें नही
न इन गुणों में मेरा अंश विद्यमान |
यह मेरी प्रकृति से प्रकट हुए,
स्वयं ही सब यहां रमे हुए |
अपने स्वभाव से सब की प्रकृति बनी |
अपने संस्कारों ने राह निश्चित की |'
'इन त्रिगुणमयी भावों से,
'सात्विक, राजस और तामस'
सब प्राणी मोहित हुए |
परम लक्ष्य को भूल सभी प्राणी
मुझसे विमुख हुव् |'
'विषयों के संग्रह में,
विषयों की कामना में
विषयों को भोगने में
सब प्राणी लिप्त हुए |
विवेक-दृष्टि सबकी वहीं टिकी,
ईश्वर की सत्ता भूल गए |
सब इस त्रिगुणमयी-तत्व में
ईश्वर को खोज रहे |'
'यह मायाजाल,
मोहजाल में बांधे |
यह आलौकिक,
अदभुत त्रिगुणमयी माया,
इस माया के जाल को
जिसने समझ लिया,
इस माया के मोह को
जिसने छोड़ दिया,
वह परम आश्रय दाता को जाने |
वह परम प्राप्त मुझे माने |
वह योगी शरणागत होकर
मन-वचन-कर्म से निर्मल होकर,
इस जगत से तर जाए |
वह सदा कल्याण को पाए |'
'प्रकृति क्या?
पुरुष क्या?
और ईश्वर क्या है?
ईश्वर का सम्बन्ध क्या है मानव से?
वह जो इच्छुक नहीं कुछ जानने को,
ऐसे पापात्मा लोग
नहीं जानने को इच्छुक
इस मानव जीवन का उद्देश्य!
ऐसे पुरुष भूले हैं अपना कर्तव्य!'
'माया मोह में जो रत हैं,
वह असुर-स्वभाव युक्त,
नहीं जानते ईश्वर की सत्ता |
उनका ध्यान नष्ट हुआ,
ईश्वर ज्ञान विलुप्त हुआ |'
'हे श्रेष्ठ पुरुष अर्जुन!
ज्ञान से जो मेरे तत्व को समझे,
शुभ कर्म शील पुरुष ही
मेरी सत्ता को जाने |
वह सुकृति मुझे पहचाने |'
'स्त्री-पुत्र-धन-मान-बढाई,
प्रतिष्ठा-सुख,
और बहुत-सी कामनाएं जिसमें,
पर निर्भर करता जो
ईश्वर की सत्ता को,
श्रद्धा और विश्वास से जो
भजता ईश्वर को,
वह अर्थार्थी भक्त भी
मेरी आराधना में रत |'
'मन से व्याकुल,
शरीर के संताप में,
विपत्ति-रोग-शत्रु भय
से घबरा कर,
जो पूर्ण विश्वास से
अड़िग श्रद्धा से
भजता ईश्वर को,
वह आर्त भक्त भी
ईश्वर की सत्ता स्वीकारे |'
'धन-स्त्री-पुत्र-घर
की चिन्ता से मुक्त हुआ,
ईश्वर की सत्ता पर निर्भर,
जिज्ञासु-भक्त वह कल्याण ही
पाए|
कोई उसकी राह न अवरुद्ध कर पाए |
ईश्वर को जान चुका जो,
जिसे तत्व ज्ञान है मिल चुका ,
वह ज्ञानी जन भी
ईश्वर आराधना में रहे लीन |
समस्त कामनाएं लुप्त हुई,
सहज भाव से ज्ञान की ओर
सब इन्द्रियां प्रवृत्त हुई
ऐसा ज्ञानी जन अति उत्तम |'
'वह एकी भाव से नित्य-निरन्तर
ईश्वर-ज्ञान में मग्न हुआ,
यथार्थ-ज्ञान का रुप दिखा
रहस्य ईश्वर का स्पष्ट हुआ |
ईश्वर ही उसका परम प्रिय
और ईश्वर का वह परम प्रिय |'
'अर्थार्थी, आर्त,
जिज्ञासु-ज्ञानी सभी एक निष्ठ हैं |
ईश्वर की सत्ता स्वीकारें |
ईश्वर को सर्वत्र मानें |
ईश्वर को सर्व शक्तिमान
मानें |'
'ज्ञानी पुरुष
जो तत्व ज्ञान को जान चुका,
वह मेरा अंश पहचान चुका |
मुझमें-उसमें भेद नहीं |
वह मेरा ही स्वरुप बना |
ऐसा मन जो मुझमें रम जाए,
ऐसी बुद्धि जो मुझे स्वीकारे,
वह सृष्टि का अंश पहचाने |
वह सृष्टि का रुप जाने |
ऐसा ज्ञानी पुरुष कर पाते |
मैं उनमें, वह मुझमें
स्वयं ही स्थित हो जाते |'
'जन्म एक
या अनेक,
इसका कोई नियम नहीं |
ईश्वर कू जानने के लिए,
श्रद्धा-प्रेम-विश्वास
है सर्वो परि |'
'इस सृष्टि में जो जब समझा,
एक जन्म में,
या बार-बार जन्म लेकर
मेरा भक्त जब मुझे समझा,
मेरे तत्व ज्ञान को जान गया,
वह मुझको पाकर तृप्त हो गया |
उसका यह जीवन सफल हो गया |'
'ऐसा योगी जन दुर्लभ होता,
लाखों-करोडों जन्म लेते
एक सिद्ध पुरुष बन पाता |
अपने लिए जो जीता नही,
उसकी मर्यादा में जीता,
उसके लिए वह कर्म करता,
उसकी सत्ता में अभिन्न बना,
वह ईश्वर का अंश बन जाता |'
'जिसकी जैसी कामना होती,
वह अपने स्वभाव से प्रेरित
होकर,
वह सूर्य-चन्द्र-अग्नि-इन्द्र,
वरुण-यम को भजता,
अपने-अपने धर्म-वर्ण की पूजा करता |
एक ब्रह्म नही,
एक ईश्वर की सत्ता नहीं,
वह अपने-अपने ईष्ट देव को भजता |
उसकी श्रद्धा, उसकी कामना
उसी देवता में स्थिर रहती |
मैं उसकी इस श्रद्धा को
स्थापित करवाता |'
'ईष्ट देव की पूजा कर
मानव मेरे विधान के भीतर सभी
इच्छित भोगों को पाता |
पर अल्प बुद्धि वाले भक्त
नही जानते,
ऐसे फलनाशवान होते |
वे जिन ईष्ट देवों की पूजा करते,
उन्ही का सानिध्य मिल पाता |
वह पापाचरण से रहित होते,
आसुर भाव से मुक्त होते |
कामनाओं के वश में हो कर पर,
देवताओं के अधीन होते |
वही यदि अपने ईष्ट में भी
एक ब्रह्म की सत्ता स्वीकारें,
ईष्ट देव को भी ब्रह्म भाव से मानें,
एक सत्य रुप ईश्वर की सत्ता स्वीकारें,
आसक्ति-कामना हो एक
ओंकार में,
ऐसे ज्ञानी जन मुझे सदैव पालें |'
'ईश्वर के गुण-प्रभाव,
नाम-स्वरुप-लीला में
जिनका विश्वास न हो,
विषयों के मोह में फंसे,
तर्क-वितर्क कर
मेरी सत्ता को नकारें,
वे बुद्धिहीन हों |
वे मेरे हर रुप को,
मनुष्य की भांति
बार-बार जन्म लेकर
व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानें |'
'ईश्वर के सगुण-निर्गुण,
दोनों ही रुप दिव्य और नित्य हैं |
प्राणियों की भांति
शरीर से संयोग-वियोग रुप में,
जन्म-मरण नहीं होता |
मनुष्य रुप में ईश्वर का
आगमन ही
जन्म है और
अन्तर्धा न हो जाना ही परमधाम
गमन है |'
'ईश्वर अजन्मा-अविनाशी,
अपनी प्रकृति की सत्ता
को तभी स्वीकारे,
जब-जब त्राहि मची हो
प्रकृति जनित दुष्टों से,
जब-जब धर्म
की पुन: स्थापन जरुरी हो |
अज्ञानी जन न स्वीकारें
मेरे प्रकट रुप को,
क्यों कि मैं योग माया से
छिपा रहता हूं |
साधारण मनुष्य-सा आचरण
करता हूं |
जो मेरे प्रेमीजन हैं,
मेरी सत्ता स्वीकारते हैं |
मेरे गुण-प्रभाव और लीला में
श्रद्धा रखते हैं,
मैं उन्हें प्रत्यक्ष होता हूं |'
'शेष सभी अज्ञान भाव में
मेरे अविनाशी-रुप को,
नहीं जानते,
मनुष्य रुप में मुझे नही पहचानते |
वे मुझे अपने-सानश्वर ही मानते हैं |
हे अर्जुन!
मैं सब देवगणों, मनुष्यों,
पशु-पक्षी-कीट-पंतगों
को अनन्त भाव में जानता हूं |
कौन-कब-कहां-कैसे था,
कैसे अब स्थित प्रकृति में,
और कौन-कब-कहां-कैसे
जन्म लेगा फिर से
या मुझमें समा जाएग
मैं सब कुछ जानता हूं |'
'मेरे लिए भूत-भविष्य-वर्त मान
का भेद नहीं,
मेरी प्रकृति का चक्र सदा से
चला हुआ |
यह सदा-सर्वदा-प्रत्यक्ष है |
मेरे लिए सब वर्त मान है |
यह जन्म
मात्र एक पल है मेरी प्रकृति का |
इसका आदि-अन्त नहीं हो सकता |'
'नित-नए आयाम स्थापित होते |
नित-नए रुप रचे जाते |
सब बार-बार जन्म लेते,
पर्दे पर नया रुप लिए आते |
बस जो मेरे भाव में लीन हुआ,
उसका रुप मेरे गुणों में समा गया |
निष्काम भाव से,
श्रेष्ठ कर्मो में तल्लीन,
राग-द्वेष जनित द्वन्द्ध् से रहित,
मोह से मुक्त
दृढ-निश्चय से युक्त
मानव् मुझको भजते हैं |'
'जो मेरी शरण में आकर,
इस जन्म-मरण के चक्र से
निकलने का यत्न करते हैं
वे मानव उस ब्रह्म को जानते हैं |
वे सम्पूर्ण कर्म रुप को,
सम्पूर्ण अध्यात्म को पहचानते हैं |'
'जो मानव
इस विनाश शील समस्त जड़
वर्ग को,
इस प्रकृति को, प्रकृति रचित
कर्मो को,
प्राणियों के अन्त:करण में
व्याप्त परमात्मा को,
जानते हैं |
वे मेरे हर रुप को
ईश्वर का समग्र रुप मानते हैं |
वे मेरे इसी य्थार्थ रुप को प्राप्त होते हैं |'