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कविता में गीता
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आत्म संयम योग
ISBN: 81-901611-05

 आत्म संयम योग


बाहर से नहीं
अन्त:करण से जो त्यागे
आसक्ति-भाव को,
फल की चाह को,
कर्मो में जुटा रहे,
वही सन्यासी,
वही योगी |'

'अग्नि त्याग,
सन्यास ग्रहण कर
कर्तापन के अहम् से जो विरक्त न हो पाता,
ममता-आसक्ति और इस काया से
अहम् भाव से रहता जुड़ा,
वह ज्ञान योग से कोसों दूर्,
वह योग भाव से वंचित रहता |'

'ध्यान-साधना से पहले तुम
ममता-आसक्ति-मद-काम-क्रोध
लोभ-मोह का त्याग करो |
मन से स्वयं अहम् भाव मिट जाएगा,
तभी मन यह योगी कहलाएगा |

शरीर-इन्द्रिय-मन द्वारा की क्रिया से
कर्तापन का अहम् जो त्यागे,
संकल्पों का सर्वथा अभाव करे जो,
वही सन्यास है,
वही योग है
उसी में ही सर्वत्र लोकहित का ज्ञान है |'


'ऐसे में
बस बाहर से चोला पहनकर
न सन्यासी कोई कहला सकता |
न योग भाव कभी सिद्ध हो सकता |'

'मन वश में होकर
शांत जब होता
तभी संकल्पो का सभी
अभाव हो जाता
तब स्वयं मुक्ति मिल जाती |'

'शास्त्रविहित कर्मो में
ध्यान-मग्न होकर
अहम् भाव से मुक्ति
मिल जाती |
कर्तव्य-कर्म सभी सिद्ध हो जाते |
इस जीवन की तृप्ति हो जाती |
योग भाव का यही रुप,
योग यही सिद्ध होता |
आसक्ति ही कामना का स्त्रोत,
आसक्ति बिना कामना किस काम की |
कर्म सभी सम्पादित होते,
मन-बुद्धि में बस तुष्टि रहती |
मोह न होता,
तृष्णा न होती,
बस परम आनन्द की होती अनुभूति |
ऐसा त्यागी पुरुष कहलाता |
संकल्पों से बंधा न होता
वह योग पुरुष कहलाता |'

'मैं आप ही अपना मित्र हूं,
मैं आप ही अपना शत्रु हूं |
मेरा कर्म ही महान है
मेरा धर्म ही महान है |
सब साधन मेरे हाथ में हैं
मैं जैसे-जैसे कर्म करुं,
वैसे ही अपना रूप रचूं |'

'धीरता से, वीरता से
दृढ़ निश्चय के साथ
आगे बढ़ो
मन में कोई संकोच न हो,
मन में कोई क्षोभ न हो
मन में कोई लोभ न हो,
बस सदैव ध्येय का ध्यान रहे,
देखो, तब देखो,
उत्थान कोई न रोक सके |'

'जो मन-इन्द्रिय पर विजय पा ले,
वह जीवन अपना सफल बना ले,
वही स्वयं को मित्र माने |
और जो मन की डोर से बंधा हुआ,
आसक्ति से लिपटा हुआ,
'और मिले और' की धुन में लगा
अपने ही धर्म को न जाने,
ऐसा जन शत्रु है अपना, अपने ही घर का |'

'शरीर, इन्द्रिय
और
मन को जिसने
वश में अपने कर लिया,
उसका नाम जितात्मा है |
कुछ हो अनुकूल
या प्रतिकूल,
मिलन हो किसी प्रियजन से
या हो वियोग,
समता में,
असमता में,
मान में, अपमान में,
राग-द्वेष-हर्ष-शोक,
भय, ईर्ष्या, काम, क्रोध न उपजे,
सम हो
चित्त जिसका शांत रहे
मानव ऐसा
स्वाधीन हुआ,
परम आनन्द में लीन हुआ,
सदा-सर्वदा
और सर्वत्र ईश्वर के भाव से
परिपूर्ण् हुआ |'

'दु:ख समझ कर, दु:ख सहकर
जो विचलित न हो,
मन में विकार न उत्पन्न हो,
वह अचल भाव से स्थित हो,
सृष्टि के आनन्दमयी स्वरुप में मग्न रहे |
सृष्टि के निर्गुण-निराकार
तत्व के प्रभाव को समझा जिसने
वही ज्ञान का स्वरुप जाने |'

'सृष्टि में सगुण-निराकार,
साकार तत्व की लीला को,
सब कुछ यह क्यों-कैसे हो रहा,
वही विज्ञान का स्वरुप जाने |
सृष्टि के निर्गुण-सगुण तत्व को,
निराकार तत्व के भाव को
जिसने जान लिया,
वह तृप्त हुआ इस ज्ञान से,
वह तृप्त हुआ इस विज्ञान से |'

'सम्बन्ध उपकार
की अपेक्षा न करके,
अपने स्वभाव के बल पर
जो प्रेम करे सबसे,
जो हित में जुटा रहे
वही सुहृद कहलाए |'

'तुम मुझसे,
मैं तुमसे प्रेम करुं,
तुम मेरा हित सोचो,
मैं भी हित की बात करुं,
ऐसा प्रिय मित्र कहलाए |'

'मन से जो धारण करे
बुरा करने को,
चेष्टा हो जिसकी बुरा चाहने की,
ऐसा पुरुष बैरी कहलाए |'

'स्वभाव ही जिसका प्रतिकूल हो,
हित में जो अहित की सोचे,
वह द्वेष भाव का पात्र हो |
बिना पक्षपात जो मेल कराये,
जो रुठों को सहज मनाए,
हित के लिए जो न्याय करे
वह मध्यस्थ कहलाए |'

'जो अपने में ही मस्त रहे,
न हित-अहित की चिन्ता करे,
न न्याय कर मेल कराए,
ऐसा पुरुष उदासिन कहलाए |'

'श्रेष्ठ वही जो
समभाव रखे,
विलक्षण स्वभाव का यह पुरुष,
श्रेष्ठ पुरुष कहलाए |'

'मन इन्द्रिय को वश में करके,
आशा की अपेक्षा न करके,
ममता से संग्रह न करके,
एकान्त भाव में
आत्मा को स्थापित करने का
यत्न करे परमात्मा में,
ध्यान योग,
स्वच्छ-निर्मल-एकान्त भाव में
आसन स्थापित कर,
चित्त-इन्द्रियों,
मनोवेग-विकारों को वश में करके,
ध्यान मग्न हो,
अन्त:करण करण की सुद्धि का
प्रयास करे जो,
वही परम पुरुष कहलाए |'

'काया, सिर, व गले को
सम करके,
एकी भाव में अचल हो कर,
स्थिरता से,
दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में स्थित करके,

आत्म भाव में लीन होकर
जो आनन्दित हो,
वह स्वयं मुझे पा ले |'

'वीर्य को संयमित करके,
जो तेज ग्रहण करे,
स्वयं को विलक्षण भाव युक्त पाए,
वही ब्रह्मचारी ध्यान योग में स्थित
हो पाए |

पुरुष ऐसा भय रहित हो,
शांत अन्त:करण हो,
मन को स्थिर करके
वह शांतिप्रिय ईश्वर में
स्वयं को स्थित पाए |'

'मन जिसका वश में हो जाए,
वह स्वयं आत्मज्ञानी हो,
कर्म-ज्ञान का ज्ञाता हो,
वह स्वयं जान जाए
इस सृष्टि की संरचना को |
स्वयं जान जाए परम आनन्दमयी
परमात्मा को
वह शांत-निर्विकार भाव से
स्वयं लीन हो जाए |
वही शांतिमय जीवन पाए |'

'हे अर्जुन!
अधिक खाने से,
नींद-आलस्य बढ़ जाता |
अन्न का सर्वथा त्याग
भी इन्द्रिय-प्राण और
मन की शक्ति का नाश करता |
अधिक सोना आलसी बनाए,
न सोना भी रोग लगाए |
ऐसे में सम रहकर जो
संयमित होता,
न अधिक खाता,
न अधिक सोता
नियम से सब कार्य करता
उसी का ध्यान योग सिद्ध हो सकता
दु:खों का नाश तभी हो पाता,
कष्ट जीवन से दूर तभी होता,
जब कर्म में जुटा मानव
खान-पान-निद्रा के आलस्य से दूर,
सदा सम रहता,
ध्यान में मग्न रहता |'

'चित्त जब वश में हो जाता,
आलस्य से पीछा छूट जाता |
एक लक्ष्य सम्मुख रहता,
कर्म से ही आनन्द मिलता,
ध्यान में ईश्वर से मिलन होता,
भोग विषय चिन्तित नहीं करते,
आकांक्षाओं से मुक्त मन होता
वही योग स्थिति होती
मन ध्यान मग्न होता |
परम आनन्दमयी होता |'

'दीपशिखा है प्रकाशमान,
चंचल है मन जैसी |
वायु रहित स्थान में जैसे दीपक
प्रकाशमान रहता,
सम रहकर मन भी प्रकाशमयी होता |'

'एक ज्ञान,
एक ही विज्ञान
पूर्णब्रह्म भी एक,
एक ही परमात्मा |
आत्मस्वरुप है अंश उसी परमात्मा का |
इसी में ध्यान मग्न योगी,
इसी को ज्ञान का पुन्ज समझे |
यही सनातन, निर्विकार,
यही असीम-अनन्त-अपार |
इसी से दृश्य-दर्शन-अहंकार |
सभी कुछ ब्रह्म में ही व्याप्त |
वही आनन्दमय, नित्य, सनातन |
वही सत है, वह चरम, वही चेतन |
वही अचल है, ध्रुव है,
वही अविनाशी, विज्ञानमयी |
यही भाव मन में स्थित कर
योगी योगमयी हो पाता |'

'परमानन्द प्राप्त कर वह,
किसी संकल्प का इच्छुक नहीं रहता |
कर्म ही जीवन-सार लगता,
ईश्वर ही सर्वत्र दृष्टिगत होता |

परमात्मा स्वरुप सुख,
सांसारिक सुखों की भांति
क्षणिक नाशवान,
दु:खों का हेतु
और दु:ख मिश्रित नहीं होता |
वह सात्विक सुख से भी महान
विलक्षण, एकरस और नित्य होता |
वही परमात्मा का स्वरुप,
वही ज्ञान रुप होता |
बुद्धि वही ग्रहण करती,
जैसा मन-दर्पण पर प्रतिबिम्ब
पड़ता |
ध्यान-योग और कर्म से शुद्धि कर
वही योगी ग्रहण करता |
वह विलक्षण सुख पाता |
यह सुख प्रकट नहीं होता,
यह तो योग-योगी और ध्येय के

एकरस स्वरुप का
परम दर्शन होता
यह परमात्मा का रुप होता |'

'भोग-विलास-ऐश्वर्य सभी
सांसारिक
सुख-साधन,
सभी रसहीन, तुच्छ-नगण्य लगते |
दु:ख भी उसको विचलित न करते |

वह समभाव-युक्त होता |

वह मान में,
अपमान में,
वह तिरस्कार में,
निन्दा में
एकरस रहता |
शरीर का कष्ट उसे
कष्ट न लगता |
वह आत्मरुप में ही
ध्यान मग्न होता,
वह ईश्वर में थित होता |'

'वह योगमयी,
वह कर्ममयी
अटल भाव लिए रहता |
शरीर,
इन्द्रिय,
और मन द्वारा
चलना-फिरना-देखना-सुनना,
मनन कर निश्चय करना,
सभी कर्म समभाव से होते |
ज्ञान में बस एकमात्र
परमात्मा शब्द ही विराजमान होता |
कर्मो में कर्ता भाव नहीं होता |

वही योग सिद्ध कहलाता |
धैर्य-उत्साह सदा बना रहता |
मन उसका व्यर्थ चिन्ता नहीं करता,

दृढ निश्चय चित्त में सदा रहता |
संकल्प से आसक्ति
और
आसक्ति से कामना की होती उत्पत्ति |
कामनाओं का सर्वथा त्याग
तभी हो पाता
जब ध्यान में इनका योग न रहता |

मन जब एकाग्र हो जाता,
कामनाओं का सर्वथा अभाव हो जाता |'

'मन को रोकना है कठिन बहुत,
धीरे-धीरे अभ्यास ही
मन को उस पार लगाता |
लक्ष्य पर दृष्टि लगा,
मन को बार-बार समझा |
धीरज से नाता जोड़,
विषय-चिन्तन से नाता तोड़ |
यह सब पलभर में न हो पाए,
बार-बार मन रोए,
आसक्ति से पीछा न छूटे,
लग्न-धीरता से शांती मिले,
मन की डोर से शनै:शनै:
बंध जाए |
मन शनै:शनै:
ईश्वर में लग जाए |'

'मन अस्थिर,
बडा चंचल |
बार-बार वह भटके |
प्रयास से साधक ध्यान लगाए,
मन की लगाम फिर भी हाथ न आए |

पलभर में मन कहीं दूर चला जाए |
कब चिन्तन से निकलकर
मोहित कर दे
भ्रम जाल नया फैलाए |'

'योग सिद्ध होकर
तुम धैर्य न छोड़ो,
सावधानी से साधना करो,
बार-बार मन को रोको,
ईश्वर की आराधना करो |
देखो! मन शांत जब हो जाएगा,
मानव वही पाप रहित होगा |
आसक्ति-कामना-तृष्णा से
रहित तभी मानव होगा |
अभ्यास ही यही करवाएगा,
मैं मानव-मात्र नहीं
मैं ब्रह्म का अंश हूं-मैं ही
ईश्वर का अंश हूं,
तभी यह कर्मयोगी की पदवी पाएगा,
तभी वह पापरहित होगा
तभी ईश्वर से मिलन होगा |
तभी परम आनन्द को वह पाएगा |'

'जो योगी निराकार ब्रह्म में,
अभिन्नभाव से स्थित होता,
वह शास्त्रानुकूल कर्म करता |
वह नित्य-निरन्तर
एक अखण्ड चेतन आत्मा को देखता,
वह समभाव युक्त होता |
एक सत्य ही मन में होता,
सम्पूर्ण जगत मात्र स्वप्न की भांति होता |
वह इसमें स्वयं को स्थिर न पाता |
वह केवल दर्शक बन
स्वयं को ईश्वर में स्थित पाता |'

'जैसे बादल में आकाश हैं,
और आकाश में बादल हैं |
वैसे सब विषयों में ब्रह्म स्थित
और ब्रह्म में सब विषय स्थित होते |
जो समस्त जगत को ब्रह्म माने,
ब्रह्म उसके लिए न अदृश्य कभी ,
न ब्रह्म के लिए वह अदृश्य कभी |
यह मिलन बहुत ही सुन्दर |'

'इस प्रकृति के हर कण में ईश्वर |
यह जीवन ही जीवन नहीं,
यही बना लगे ईश्वर |
प्रत्यक्ष रुप में कण-कण में बसा हुआ
ईश्वर |

तन्मय होकर,
मन-वचन-कर्म में लीन होकर,
शास्त्रानुकूल यथायोग्य व्यवहार
करता,
वह पुरुष सदैव अपने ईष्ट को
उपस्थित पाता |
हर कर्म में उसके ईश्वर साथ
होता |
हर कर्म उसका आनन्दमयी होता |
वह सदा आनन्दित रहता |'

'हे अर्जुन!
प्रत्येक अंग शरीर का जैसे प्रिय होता,
वैसे ही सुख में, दु:ख में
योगी पुरुष समभाव रखता |
सुख पाकर वह हर्षित नहीं होता,
दु:ख उसको कभी नहीं रुलाता,
ऐसा योगी पुरुष श्रेष्ठ होता |'

अर्जुन तब बोला-
'हे मधुसूदन!
समता से व्यवहार करना |
समत्व भाव से ही जीना,
कर्म योग-भक्ति योग-ध्यान योग
और ज्ञान योग की सिद्धि
समता से कैसे स्थापित हो सकती?
चंचल हैं मन,
रोके राह को!
चंचल मन से
समता स्थापित कैसे हि पाए?'

'हे कृष्ण!
वायु के प्रवाह को जैसे रोकना दुष्कर,
बलशाली बहुत,दृढ भी बड़ा मन,
इसके भाव को रोकना है दुष्कर |'

श्री भगवान, तब बोले-
'हे महाबाहो!
निश्चित है मन चंचल बहुत |
वश में हो कठिनता से |
हे कुन्तीपुत्र!
प्रयत्न बार-बार यत्न,
लक्ष्य से दूर होते ही फिर प्रयत्न |
चित्त दृढता से रोके हो,
वैराग्य स्थापित हो जब मन मे

इच्छा-काम-लोभ-मोह से,
मन की लगाम न ढीली हो |'

'देखो! मन स्थिर होगा |
देखो! मन स्थापित हो जाएगा
अपने कर्म भाव में |
देखो! मन स्वयं
आनन्द पाएगा अपने समत्व भाव से |'

'मन जो वश में न कर पाता,
उसमें राग-द्वेष का अधिकार रहता |
मन यहां-वहां डोलता फिरे,
मन आसक्त रहे
ऐसे में समत्व भाव से दूर रहे |
यत्न करो, प्रयत्न करो,
एक बार नहीं,
बार-बार प्रयत्न करो
मन सावधान होगा |
मन स्वयं टिक जाएगा |
मोह जाल स्वयं टूट जाएगा |
यही साधना है समत्व भाव की
यही आराधना है ईश्वर के भाव की |'

अर्जुन तब बोला-'हे क्रिष्ण!
जीवन भर जो साधक,
कर्म भाव में लीन रहा |
ध्यान योग में मन जिसका लगा रहा,
वह एकाएक राह भटक गया,
न जाने कब-कैसे मन भटक गया!
वैरागी था वह,
श्रद्धालु भी था,
सयंम से नाता टूट गया |
ऐसा साधक योग सिद्ध न होकर,
ब्रह्म को प्राप्त न होकर
किस रुप को फिर से पाएगा?

मन की चंचलता से,
विवेक-वैराग्य की कमी से,
मन विचलित जिसका हो जाता,
मोहित मन आश्रय रहित जब हो जाता,
बादल का टुकडा
पृथक होकर अपने समूह से
नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है,
साधक ऐसा कैसी गति पाता?
हे क्रिष्ण! संशय का करो छेदन |
तुम योग विद्या की असीमता के ज्ञाता
तुम से कुछ भी नहीं छिपा |
ऐसे कुछ वचन कहो मुझे,
संशय मेरा मिट जाए जो |'

श्री भगवान तब बोले-
'इस जीवन को तुम अन्त न मानो |
प्रयत्न इस काया से हो,
इसी को अन्त न जानो |
प्रयत्न, और प्रयत्न,
इस रुप में न हो पूर्ण,
तो दूसरे रुप में होगा |
यह आत्मा तो बार-बार जन्म लेगी
यह आत्मा तो बार-बार जन्म लेगी
यह आत्मा तो नहीं मिटेगी |
भटका हुआ है यदि योगी,
वह फिर से रुप धरेगा |
अपनी पहली स्थिति से
उसका उत्थान अवश्य होगा |
वह नष्ट नहीं होगा |'

'हे प्रिये! दुर्गति नहीं कभी पाएगा |
कर्म योग क साधन,
भक्ति योग का साधन,
हर बार तुझे आगे ही बढ़ाएगा |
राह भटका है,
फिर राह पर अपनी आएगा |

'ऐसे में प्रयत्न और होगा,
यत्न बहुत होगा,
दुर्गति नही होगी,
शुद्ध आचरण वाले श्रीमान
के घर ही तेरा फिर
जन्म होगा |
यह जन्म बार-बार होगा,
जब तक मन स्थिर नहीं होगा |
जब तक समत्व स्थापित न होगा |'

'ज्ञानवान का साथ मिलेगा,
कर्मयोग के नए-नए साधन मिलेंगे
सृष्टि सब साधन नए जुटाएगी,
तेरा जन्म नए युग में होगा
तू समर्थवान होगा
हर जन्म तेरा
पहले जन्म से दुर्लभ होगा |
नए रुप में तुझे स्वय

समबुद्धि योग के नए संस्कार मिलेंगे
पूर्वजन्म में संग्रह किए
साधन मिलेंगे
तू फिर एक प्रयत्न की ओर बढेगा,
तू बार-बार प्रयत्न करेगा |
संस्कार तुझे फिर से
कर्म योग में,
भक्ति योग में आकर्षित करवाएंगे |
स्वयं समबुद्धि पाने की ओर बढ़ाएंगे |'

'एक बार नहीं, बार-बार प्रयत्न होगा |
अनेक जन्म होंगे,
संस्कार प्रबल होंगे,
प्रयत्न करेगा,
समभाव स्थापित होगा मन में |
तभी तू परमगति को पाएगा |
कभी न कभी आत्मा का
परमात्मा से मिलन हो जाएगा |'

'हे अर्जुन!
योगी श्रेष्ठ होता
तपस्वी से |
योगी श्रेष्ठ होता
शास्त्र-ज्ञानी से |
सकाम कर्म करने वाले से भी
योगी ही श्रेष्ठ होता |
इसलिए तू योगी बन |
निश्चित कर तू अपना मन |
सम्पूर्ण योगियों में जो
ईश्वर की सत्ता स्वीकारे,
मन-बुद्धि अचल-अटल कर
मुझमें जो स्थापित हो जाए,
वही परम श्रेष्ठ योगी की पदवी पाए |''