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कविता में गीता
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कविता में गीता
Voice and Text
(1)
गीता धर्म (GITA DHARM)
(2)
गीता निर्माण (GITA NIRMAN)
(3)
अर्जुन विषाद योग (ARJUN VISHAD YOG)
(4)
सांख्य योग (SANKHYA YOG)
(5)
कर्म योग (KARM YOG)
(6)
ज्ञान कर्म सन्यास योग (GYAN-KARM-SANYAS YOG)
(7)
KARM-SANYAS YOG (कर्म सन्यास योग)
(8)
आत्म संयम योग (ATAM-SANYAM YOG)
(9)
ज्ञान विज्ञान योग (GYAN-VIGYAN YOG)
(10)
अक्षर ब्रह्म योग (AKSHAR-BRAHM YOG)
(11)
परम गोपनिय ज्ञान योग (PARAM GOPNIYE GYAN YOG)
(12)
विभूति योग (VIBHUTI YOG)
(13)
विश्व रुप दर्शन योग (VISHWAROOP DARSHAN YOG)
(14)
भक्ति योग (BHAKTI YOG)
(15)
शरीर और आत्मा विभाग योग (SHARIR AUR ATMA VIBHAG YOG)
(16)
गुणत्रय विभाग योग (GUNTREY VIBHAAG YOG)
(17)
पुरुषोत्तम योग (PURSHOTTAM YOG)
(18)
देवासुर सम्पद विभाग योग (DEVASUR SAMPAD VIBHAG YOG)
(19)
श्रद्धात्रय विभाग योग (SHRADHATREY VIBHAG YOG)
(20)
मोक्ष सन्यास योग (MOKSH SANYAS YOG)
(21)
कृष्ण भाव (KRISHAN BHAAV)
सांख्य योग (SANKHYA YOG)
ISBN: 81-901611-05
सांख्य योग
करुणा से डूबे अर्जुन को देख
मधुसूदन ने तब वचन कहा,
'यह असमय मोह किस काम का,
श्रेष्ठ पुरुष हो तुम अर्जुन,
कातर भाव क्यों आन खड़ा ?
पृथा पुत्र अर्जुन कैसे दुर्बल-चित हुआ ?
नपुंसक बने क्यों खड़े हुए,
न मोक्ष तुम्हें मिल पाएगा
न कीर्ति तुम्हें मिल पाएगी
धर्म-अर्थ सब दूर हो जाएगा |'
हाथ जोड़ अर्जुन तब बोला,
'हे मधुसूदन !
हे अरिसूदन !
ब्रह्मा से तुलना गुरुजन की
विष्णु से तुलना गुरुजन की,
गुरु से कहे कठोर वचन
महापापी बनाते
तब कैसे बाण प्रहार करुंगा?
भीष्म पितामह
गुरु द्रोणाचार्य के विरुद्ध मैं कैसे लडूँगा ?
वे दोनों पूज्यनीय मेरे
और बहुत से महानुभाव है |
भिक्षा लेकर मैं जिऊँगा
पर गुरुवर से युद्ध न करूँगा |'
'गुरु हत्या कर क्या मिलेगा?
न मुक्ति होगी
न धर्म सिद्धि
रक्त सना हुआ अर्थ होगा
कामरुप तुच्छ भोग मिलेगा
ऐसा पाकर क्या करूँगा?
हे कृष्ण! मैं युद्ध न करूँगा
हे कृष्ण! मैं युद्ध न करूँगा |'
'धृतराष्ट्र पुत्र समक्ष खड़े हैं,
आत्मीय जन वे मेरे हैं,
युद्ध श्रेष्ठ या
युद्ध न करना,
वे जीतें या
हम जीतें,
उन्हें मारकर
हम जी न सकेंगे |
ऐसे में मैं युद्ध न करूँगा |
युद्ध न करूँगा |
भिक्षा दो मुझे धर्म की
भिक्षा दो मुझे साधन की |'
'मैं क्षत्रिय धर्म
से दूर हटा,
शौर्य, वीर्य,
चातुर्य, धैर्य
साहस-पराक्रम
सब नष्ट हुआ
ऐसे में मुझे
शिक्षा दो
हे नाथ, अपनी शरण में लो !'
'हे कृष्ण !
देवता आधीन हों मेरे
निष्कंटक राज्य हो मेरा
सुख-साधन सब जुटा कर भी
ऐसा उपाय नहीं पाऊँगा
जो आत्म सुख मुझे दे सके |
ऐसे ही मैं जी लूँगा,
हे कृष्ण! मैं युद्ध न करूँगा |
हे कृष्ण! मैं युद्ध न करूँगा |'
अन्तर्यामी श्री कृष्ण
ने समझा,
यही वह अर्जुन जो
उत्साहित था,
यही वह अर्जुन जो
साहस भरा
रथ में बैठा था,
दोनों सेनाओं के बीच
खड़ा अब व्याकुल है
शिक्षा की भिक्षा पाए
बिना
शस्त्र त्यागने को उत्सुक है |
ऐसे में मीठि-सी हँसी
और कहे ये वचन
'हे अर्जुन!
कैसी दुविधा में पड़ा तू,
शोक करने जो योग्य नहीं
उनका शोक मनाता है
बात ज्ञान की करता है
ज्ञानी तो न जीवित का
न निर्जीव का शोक
करते है!
यह आने-जाने क चक्र
बना रहेगा
मैं हर काल में था
तू हर काल में था
ये राजा सदैव रहे हैं
और
हर काल में रहेंगे
मैं भी आता रहूँगा
तू भी आता रहेगा
नश्वर शरीर को छोड़
हम फिर से उदित होंगे |
हम बार-बार जन्म लेंगे |'
'यह जीवात्मा
वर्तमान देह में
बालपन, जवानी,
वृद्धावस्था पाएगी
और फिर लौट कर
नया शरीर पाएगी |
फिर से आ जाएगा बचपन,
फिर से आ जाएगा लड़कपन |
मोह त्याग हे अर्जुन !
मोह त्याग हे अर्जुन !
अब मोह काम नहीं आएगा |
अब वीर पुरुष ही जीतेगा |'
'हे कुन्ती पुत्र!
सहन कर
सर्दी-गर्मी को,
सहन कर
सुख-दु:ख को |
राग-द्वेष
हर्ष-शोक
मन से उत्पन्न
विनाशशील यह भाव,
इस भाव को त्याग |
तू पुरुष श्रेष्ठ!
दु:ख को देख मत घबरा,
सुख में मत लिप्त हो जा,
व्याकुलता त्याग, हे धीर पुरुष !
तभी तृप्त हो पाएगा |
तभी मोक्ष तू पाएगा |'
'सत् की सता एकरस,
अखण्ड रुप है सत् का
सत् निर्विकार |
असत् परिवर्तनशील
न आकार कोई,
न रुप कहीं किसी काल में |
न पहले था,
न आगे कभी होगा |
इस जड़ वस्तु के नाश से,
इस असत् के विनाश से
क्या तुम्हारा नाश होगा ?'
'नाश रहित तू नहीं
नाश रहित मैं भी नहीं |
अविनाशी का विनाश करे जो
ऐसा कोई समर्थवान नहीं |
सम्पूर्ण जगत
व्याप्त है जिसमें,
वही नाश रहित तू जान |
यह नाश रहित,
अप्रेमय
नित्य स्वरुप जीवात्मा
सदा पाती
नाशवान शरीर
आत्मा एक,
शरीर अनेक
अज्ञान ही भेद कराता
आत्मा से |'
'हे ज्ञानी पुरुष !
आत्मा को अलग मान
विरक्त मान नश्वर शरीर से |
हे भरतवंशी अर्जुन!
तू युद्ध कर
तू युद्ध कर !
मरना-मारना जिसको तुम कहते
वियोग है वो,
मन बुद्धियुक्त स्थूल शरीर से
सूक्ष्म शरीर का वियोग मान |
यह सूक्ष्म शरीर,
यह आत्मा
न तो किसी को मारता है,
न ही यह मर जाता है |
यही तुम्हारा सत्य है |
यही जीवन है
यही जीवन है |'
'उत्पत्ति
अस्तित्व
वृद्धि
अपक्षय
विनाश
यह विकार-यही जीवन!
आत्मा तो न जन्मता है
न मरता है,
यह अजन्मा, नित्य
सनातन और पुरातन है |'
'हे पृथा पुत्र अर्जुन!
आत्मस्वरुप के यथार्थ को जान
आत्मा को नाशरहित,
नित्य, अजन्मा और अव्यय मान |
तब कह तू कैसे किसे मरवाता है
और कैसे किसे मारता है?'
'आत्मा वही करती
जो तुम करते हो
वस्त्र बदलते हो नित्य,
नए वस्त्र धारण करते हो
यह जीवन-चक्र में
एक शरीर को त्याग
नए शरीर को पाती है |
शरीर अनित्य-साकार वस्तु
आत्मा नित्य-निराकार
न इसे शस्त्र काट सकते
न अग्नि इसे जला पाती
जल गला नहीं पाता
वायु सुखा नहीं पाती |'
'आत्मा अखण्ड,
अव्यक्त
एकरस और निर्विकार,
आत्मा नित्य, सर्वव्यापी
अचल, स्थिर और सनातन |
आत्मा अचिन्त्य है,
यह विकार रहित,
इसे जानकर भी तू शोक करता है ?'
'हे महाबाहो |
आत्मा यदि नश्वर ही मानो तुम
यदि जन्म के साथ जन्मने वाली
मरने के साथ मरने वाली
तब भी शोक करने का कारण नहीं
ऐसा मानने वाले भी
मानते है
जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित,
मरे हुए का जन्म निश्चित |
यही जीवन का नियम समझ
फिर शोक करने का अर्थ नहीं है |'
'हे अर्जुन!
जन्म से पहले तुम
अप्रकट रहे,
मरने के बाद
अप्रकट हो जाओगे,
बीच में ही प्रकट हो
ऐसे में भी शोक करते हो!'
'जिसको तुम अपना मान रहे
वे जन्म से पहले अप्रकट रहे
वे पुन: अप्रकट हो जाएंगे |
ये न तुम्हारे है
न तुम इनके हो
ये अप्रकटता से आए है
ये अप्रकटता में जाएँगे |'
'आत्मा आश्चर्यमय
विलक्षन प्रतिभा जी जान सके,
इसका वर्णन आश्चर्य युक्त,
इसका श्रवन आश्चर्य युक्त
ब्रह्मनिष्ट पुरुष ही जान सके |
अज्ञानी सुनकर न समझ सके |
आत्मा एक है
इसका भेद नहीं
मुझमें भी वही
तुममें भी वही
सब में वह व्यापी है |
शरीर भेद तुम जानों
यह आत्म भेद नहीं |
यह कट नहीं सकती
यह नश्वर है,
अविनाशी है
तब शोक क्यों करते हो,
भयभीत क्यों होते हो ?'
'यह धर्ममय युद्ध है,
लोभयुक्त नहीं |
अनीति के विरुद्ध
यह क्षत्रिय धर्म,
यह धर्म है तुम्हारा |
कल्याणकारी
कर्तव्य है तुम्हारा |
धर्ममय युद्ध तुम्हें
मोक्ष दिलाएगा,
भाग्य समझो अपना
जीवन को यही
सार्थकता दिलाएगा |'
'धर्मयुद्ध से हटकर तुम
स्वधर्म, कीर्ति को खोकर
पाप को ही पाओगे,
अनन्त काल तक
अपकीर्ति का तुम्हारी गुणगान होगा |
माननीय पुरुष हो तुम अर्जुन!
ऐसा अपयश तो मरण समान होगा |
'कायर समझेंगे शूरवीर
सम्मान सभी लुट जाएगा |
तुम युद्ध पाप समझ कर त्याग रहे,
वे मानेंगे भयभीत तुम्हें |
बैरी लोग निन्दा करेंगे
अकथनीय वचन कहेंगे
सामर्थ्यवान की असमर्थता
को सब कायरता ही कहेंगे |'
'गाण्डीव धनुष और पौरुषता
को धिक्कार होगा,
युद्ध कौशल की निन्दा होगी |
अर्जुन निन्दा ऐसी
बहुत दु:खदायिनी होगी |'
'युद्ध कौशल दिखा
मर जाएगा तो
स्वर्ग को प्राप्त होगा,
विजयी होगा तो
पृथ्वी का राज्य भोगेगा |
उठ जा अब !
युद्ध का निश्चय कर,
अर्जुन! तू युद्ध कर
युद्ध कर |'
'जय-पराजय
लाभ हानि
सुख-दु:ख सब एक समान,
युद्ध के लिए तैयार हो
न तू पापी
न स्वयं को पापी मान |'
'हे पार्थ!
ज्ञान योग मैं कह चुका
अब कर्म योग सुनाता हूँ |
ममता-आसक्ति,
काम-क्रोध
लोभ से मुक्त होकर जो
समता सहित
वर्ण-आश्रम
परिस्थिति-स्वभाव से
कर्तव्य कर्म का करे आचरण
वही कर्मयोगी कहलाता है |'
'निष्काम भाव का परिणाम
सिद्ध हुए बिना
न नष्ट होता है
और न ही उसका कोई दूसरा फल
हो सकता है |
यह उद्धार करता है
यही उसका महत्त्व है |
पर इसमें समय का नियम नहीं,
न जाने इस जन्म में उद्धार हो
या जन्मान्तर में
पर तेरा हर कर्म वृद्धि को प्राप्त होगा
पूर्ण होकर तेरा उद्धार करेगा |
तभी जन्म-मृत्यु के भय से
तेरी रक्षा होगी |'
'स्थिर बुद्धि की आस्था एक
स्थिर बुद्धि का ईश्वर एक
दृढ़ निश्चय ही से
कर्मभाव सिद्ध होगा,
विवेकहीन विचलित रहेगा,
हित-अहित में फँसा रहेगा
न कर्म उचित कर पाएगा
न उद्धार कभी हो पाएगा |'
'भोग-विलास में आसक्त
मन-मोह अति चंचल,
यह वेद वाणी का गूढ़ रहस्य
'भोग-विलास परम सत्य,
स्वर्ग प्राप्ति परम पुरुषार्थ'
ऐसा माने अविवेकी जन |
बड़ी ही सुन्दर-बड़ी रमणीय
वेद वाणी
चित हर लेती
मनमोह लेती
ऐसे आसक्त
मन गूढ़ रहस्य
से दूर हुआ
मन लिप्त हुआ
भोगों में
ऐसा जन
स्थिर बुद्धि से दूर हुआ |'
'हे अर्जुन |
सत्-रज-तम
तीन गुणों के
कर्म मेल से बनी
यह काया,
भोग-योग और कर्म
यह चलते हैं,
चलते रहेंगे |
इन कर्मो का
इन विषयों का
त्याग नहीं हो पाएगा
हाँ, ममता-आसक्ति और
कामना से रहित मनुष्य ही
ईश्वर को पाएगा |'
'सुख-दु:ख,
लाभ-होनि
कीर्ति-अकीर्ति
मान-अपमान
परस्पर विरोधी,
इन सबके संयोग-वियोग में
सम रहना,
विचलित न होना
मोहित न होना
हर्ष-शोक
राग-द्वेष से रहित रहना ही
रहित होना कहलाता है |'
'जो पूर्ण-ब्रह्म को पाले,
अमृत को चख कर
अपनी प्यास बुझा ले
वह पुरुष-श्रेष्ठ
काहे भटकेगा
जल पाने को,
काहे तड़पेगा
काहे तरसेगा
वह पूर्ण काम को पाएगा
वह नित्यतृप्त हो जाएगा |'
'जो कर्म मिला
उसको निभा,
वही तेरा अधिकार क्षेत्र,
फल की इच्छा
कर्म न करने की आसक्ति
तेरे स्वभाव से नहीं शोभित |
हठ से त्यागा कर्म,
कर्म नहीं कहलाता है |
ऐसा हठ, कर्म-क्षेत्र में नहीं आता है |'
'हे धनन्जय !
आसक्ति त्याग,
सिद्धि और असिद्धि में
समता बना,
राग-द्वेष से दूर हो,
हर्ष-शोक का अभाव बना,
सम रह कर
तू कर्म कर
चल उठ, कर्तव्य निभा
यही समत्व योग कहलाएगा |'
'ज्ञानी कर्म का कर्ता
न माने स्वयं को,
तब फल के त्याग की बात कहाँ?
ऐसे में, हे अर्जुन!
सकाम कर्म निम्न श्रेणी का |
यह क्षणिक दु:ख,
यह क्षणिक कष्ट
नश्वर है |'
'समबुद्धि में उपाय छिपा,
यही आश्रय ग्रहण कर |
कर्म तो बन्धन में बाँधे,
हम कर्म से दूर न हट पाते |
समबुद्धि युक्त कर्मयोगी
कर्मो का कर्ता होकर भी
कर्मो से मुक्त माने स्वयं को,
पुण्य को पुण्य समझ न कर,
पाप को त्याग
लोकहित में जुट जा,
तभी तू कर्म बन्धन से छूट पाएगा |'
'समबुद्धि युक्त ज्ञानी जन
कर्मो से उत्पन्न
फल को त्याग,
जन्मरुप बन्धन से मुक्त
निर्विकार परम पद को पाते है |'
'हे अर्जुन!
जिस काल में बुद्धि तेरी
मोहरुपी दल-दल पार करेगी,
तभी तू देखे-सुने सभी
इस लोक परलोक के
भोगों से वैराग्य को पाएगा |
'हे अर्जुन!
सुख-साधन को विभिन्न रुप,
जो अब माना,
कल और ही रुप,
मन बुद्धि दोनों विक्षिप्त,
मन को समझा,
मन को तू रोक
परम प्रिय परमात्मा में अचल
अटल बुद्धि तू कर स्थिर,
तभी योग को पाएगा
परमात्मा से तभी तेरा मिलन हो पाएगा |'
'अर्जुन जिज्ञासु बना,
ब्रह्मा-विष्णु-शिव के रुप
से नतमस्तक हो बोला,
'हे केशव!
आप समस्त जगत के
सृजन-सरंक्षण और संहार
करने वाले,
सर्वशक्तिमान-साक्षात-सर्वज्ञ
परमेश्वर,
मेरी जिज्ञासा शाँत करो ईश्वर
स्थिर बुद्धि पुरुष का क्या लक्षण ?
मन-भाव युक्त कैसे वचन ?
कैसी अवस्था उसकी,
कैसा उसका आचरण ?'
'हे अर्जुन!
मन में स्थित कामनाओं
के भेद अनेक
वासना, स्पृहा, इच्छा और तृष्णा
अन्त:करण से जो त्यागे
वह पूर्ण पुरुष |
आत्मा से तू तृप्त हो,
आत्मा से सन्तुष्ट हो,
कामना का त्याग नहीं
कामना का अभाव करे जो
वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है
मन उस योगी का
कर्म योग का साधन पाकर
ईश्वर में स्थित हो जाता है |'
'उद्वेग जिसे विचलित न करते,
शस्त्र जिसे न पीड़ा देते
रोग व्यथित न कर पाते,
तिरस्कार, निन्दा न दु:ख देती
दु:ख-सुख में जो सम रहता
वाणी में जिसकी
भय, आसक्ति और क्रोध का अभाव रहता
वह शाँत, सरल, बुद्धिमान पुरुष
स्थिर बुद्धि युक्त मुनिवर कहलाता |
आसक्ति, काम-क्रोध का मूल
ममता ही दु:ख-सुख का मूल मन्त्र
इस दोष से रहित पुरुष
शुद्ध और प्रेममयी होता |
स्थिर बुद्धि पुरुष
शुभ को प्राप्त कर न प्रसन्न होता
अशुभ पाकर न खिन्न होता
वह शाँत रहता
निर्विकार रहता |'
'अंग समेट के कछुआ जैसे
संकुचित हो जाता है,
जो पुरुष मन-बुद्धि को अचल बना
इन्द्रियों को विचलित न करता
परिकल्पनाओं से बाहर रहकर,
कर्म में जुटा रहता,
कल्पनाओं के घेरे से बाहर रहकर, कर्म करता
स्थिर बुद्धि युक्त वही कहलाता |'
'रोग-मृत्यु का भय
विषयों का परित्याग करवाता,
हठ-भय के बल पर
आसक्ति से निवृत मानव
फिर भी न हो पाता |
बार-बार भटकता,
बार-बार वह सोचता,
अन्त:करण न स्थिर होता,
ऐसे में आसक्ति बनी रहती |'
'परमात्मा का भेद समझ
परमात्मा का दर्शन समझ,
स्थित प्रज्ञ पुरुष स्वयं को
निवृत पाता आसक्ति से |'
'हे अर्जुन!
निवृत होना पर सरल नहीं,
सुख के प्रलोभन,
मन के मन्थन
से निवृत होना सरल नहीं |
यह साधना है,
यह ध्यान मग्न होना सरल नही |
ममता-आसक्ति-कामना
का त्याग कर,
इन्द्रियों को सयंमित कर,
मन केन्द्रित कर
लक्ष्य पर,
बुद्धि होगी तभी स्थिर |'
'विषयों का चिन्तन अब न कर,
विषयों से आसक्ति न कर,
आसक्ति कामना उपजाएगी,
विघ्न पड़ा तो
द्वेष बुद्धि कर क्रोध को उपजाएगी |
क्रोध से मूढ़भाव होगा
स्मृति में भ्रम उत्पन्न होगा,
भ्रम बुद्धि का नाश करेगा,
ज्ञान का नाश होगा,
कटुता-कठोरता
कायरता-हिंसा
दीनता-जड़ता
मन में घर कर जाएगी,
मूढ़ बुद्धि को बनाएगी
स्थिरता का पतन हो जाएगा
अपनी स्थिति से तू नीचे गिर जाएगा |'
'स्थिर बुद्धि कर,
साधना से साधक बन,
विषयों के आधीन न हो,
राग-द्वेष से रहित बन,
वश में रख अपना मन,
देख| स्वयं देख
अन्त:करण अपना प्रसन्न |'
'दु:ख का स्वयं अभाव लगेगा,
बुद्धि स्थिर होगी,
स्वयं ईश्वर साकार होगा |'
और ईश्वर क्या है?
मन को प्रसन्न कर जाए जो,
राग-द्वेष मिटा जाए जो,
भूख-प्यास मिटा जाए जो,
दु:ख-सुख कि परिभाषा बदले जो,
एकरस जीवन लगे,
प्रेम-भाव जब बना रहे |
मन न भटके,
तन कभी ना थके,
बस जीवन निर्झर-सा बहता रहे |
ईश्वर जब जीवन लगे |'
'मन की डोर न बाँध सके जो,
इन्द्रियो को वश में न कर पाए,
वह भावनाओं से परे,
भावनाहीन शाँति रहित हुए
सुख की कल्पना भी कैसे कर पाए ?'
'नौका है बुद्धि,
वायु है मन,
और मन में भरी इन्द्रियाँ
इस जीवन समुद्र में
एक ही क्षण,
एक ही तरंग
बुद्धि को भटका देती,
मन को हर लेती |'
'अनादिकाल से हम
भोगों में लिप्त रहे,
आसक्ति हर क्षण बनी रही,
यह स्वभाव बदल पाना,
मन-बुद्धि को विचलित करे जो
उस क्षण का अभाव करना
सरल नहीं
पर सरलता से इसका अभाव करना
ही स्थिर- बुद्धि का गुण है |'
'हम दिन भर क्या करते हैं
भोगों से आसक्त होकर
उन्हें पाने की चेष्टा में मग्न रहते हैं |
प्राप्ति में आनन्द पाते हैं |
ना मिले कभी तो दु:ख करते हैं |
जीवन यह रात्रि समान |
इसे तू अंधकार ही मान |'
स्थितप्रज्ञ योगी इसी आसक्ति से
दूर रहकर
इसी रात्रि में सूर्य की किरणें पाता,
इसी अंधकार में प्रकाशमान रहता |
उसे भोग न विचलित करते
उसे योग ही सब सिखलाता |
उसे तभी ईश्वर मिल पाता |'
'समुद्र अचल है,
नदियों से कितना ही जल
नित्यप्रति आ मिलता,
लेकिन समुद्र विचलित न होता
अपनी मर्यादा में रहता |
ऐसा ही योगी होता है
सब संसारिक सुख-दु:ख
का संयोग-वियोग,
उसे विचलित ना कर पाते
वह निरन्तर अटल,
एकरस स्थिति में रहता |'
'अहम् भाव,
ममता,
अपेक्षा रहित
कामनाओं से रहित हो जाए
वही योगी शाँति को पाए |
और यह शाँतिप्रिय
योगी ब्रह्म को प्राप्त हो |'
'हे अर्जुन! ब्रह्म को पाकर भी
योगी मोहित न होता
बस अपने स्थिर भाव में
जीवन-पर्यन्त कर्तव्य-कर्म में जुटा रहे
ऐसे में ही वह ब्रह्मानन्द को पाए |'