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कविता में गीता
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गीता निर्माण
ISBN: 81-901611-05

गीता निर्माण

 

मुनिवर व्यास ने अठारह पुराण

नौ व्याकरण और चार वेंदों का

मन्थन करके रचना की महाभारत की |

फिर महाभारत रुपी समुद्र-का

मंथन करने से प्रकट हुई गीता |

और गीता का मन्थन करके

भगवान श्री कृष्ण ने उसके अर्थ का सार

अर्जुन के मन में डाल दिया |

इस अर्जुन का मन मेरा भी है,

तुम्हारा भी है-और इस सृष्टि में

सभी का हो सकता है यदि हम

इसके भाव को अपने

जीवन में धारण कर सकें |

 

राजसूय-यज्ञ का आयोजन

किया पाण्डवों ने,

महान एश्वर्य देखकर उनका

दुर्योधन जल उठा |

तब शकुनि मामा से मिल कर

उसने रचा एक षडयंत्र |

जान युधिष्ठर की लत को

जुए का भेजा निमन्त्रण |

चली चाल शकुनि की

कोई न भांप सका

लुट गया सारा राजपाट -

द्रौपदी भी लुटा बैठा |

 

समझाया-बुझाया व्यर्थ गया

हठ पर दुर्योधन अडिग रहा |

तब निश्चय हुया वनवास का

- एक जाल बुना

- षडयंत्र रचा

बारह बरस वनवास दिया

न केवल युधिष्ठिर

नकुल, भीम, अर्जुन, सहदेव,

द्रौपदी को वनवास मिला|

शर्त तेरहवे वर्ष की

और कठिन थी

करना था अज्ञातवास

न खोज सके कोई

न खबर लगे किसी को,

तब जाकर राज्य मिलेगा

दुर्योधन ने स्वांग रचा

तेरह वर्ष बाद

कौन किसकी परवाह करेगा|

 

कष्ट झेलते बीता वनवास

अज्ञातवास का न भेद खुला,

- लौट नगर जब आए पाण्डव

दुर्योधन ने मुहं फेरा |

न कोई कसम, न वायदा मेरा,

अब कौनसा राज्य पाण्डवों का ?

- धर्म-अधर्म की बात नहीं,

जो जीता है- वह मेरा है,

मरते दम तक मेरा रहेगा

पूरे राज्य की बात दूर की है

सुइ भर का राज भी नहीं मिलेगा |

बात बडी, कुछ ने समझाया

- कुछ ने भड्काया

युद्ध का निर्णय हुआ

महाभारत का बिगुल बज उठा |

 

रण-निमन्त्रण देने

दुर्योधन जब द्वारिका पहुंचा,

- कृष्ण तब सो रहे थे |

बैठ गया उनके सिरहाने,

तभी अर्जुन भी आ पहुंचा,

शालीनता थी मन में

हाथ जोड, नतमस्तक

चरणों में पडा रहा |

 

श्रीकृष्ण की लीला थी यह

श्रीकृष्ण सब जानते थे;

- आँख खुली देखा अर्जुन,

दायें मुडे देखा दुर्योधन

- आने का पूछा प्रयोजन |

दुर्योधन बोला तब पहले,

'हम दोनों संबंधी आपके

दोनों से सम प्रेम भाव |

मैं आया पहले

अधिकार मेरा पहला

- सहायता चाहता हूँ

युद्ध में,

ईच्छा मेरी पूर्ण करो |'

 

श्रीकृष्ण की लीला-

कुछ सोचा,

मीठे से बोल

मीठी-सी हँसी-

'आंख खुली

देखा अर्जुन,

चाहे तुम पहले आए

-दोनों को मिलेगी सहायता,

पर पहला हक अर्जुन का |

एक ओर नारायणी सेना,

दूसरी ओर मैन स्वयं खड़ा |

न युद्ध करुँगा, न शस्त्र लूंगा |

-पहल अर्जुन तुम्हारी

जो चाहे माँग लो |'

हाथ जोड़ अर्जुन तब बोला,

' न सेना चाहिए मुझे

न शस्त्र पाने की इच्छा मेरी,

मुझे मेरा नारायण मिले-

मुझे आपका साथ मिले |'

 

मुंह मांगी मिली मुराद

दुर्योधन की लौटी सांस-

सेना पाने को ललायित था

पाकर सेना झूम उठा

भाग्य देखो दुर्योधन का

नारायण को छोड़

नारायण की सेना को पाया,

आशीर्वाद भूल श्री भगवन् का

हस्तिनापुर मद् में लौट गया |

 

तब श्री कृष्ण अर्जुन से बोले,

'मैं युद्ध नहीं करुंगा

मै शस्त्र नहीं लूंगा

फिर क्यों मुझको स्वीकार किया?

विजय के लिए मुझसे क्या मिलेगा?'

नतमस्तक हो तब अर्जुन बोला,

'तुम सर्वपालनहार

तुम सबके रक्षक,

नारायण सारथी मुझे मिला

उद्धार मेरा स्वंय होगा |'

 

नारायण की भी यही थी ईच्छा ,

तभी अर्जुन का साथ दिया,

महाभारत के धर्म युद्ध में

गीता का उपदेश दिया |

'' जो होनी है, वो अवश्य होगी,

होनी को न कोइ टाल सकेगा

-इस सर्वनाश को होना है

कोई इसको न रोक सकेगा |

अधर्म का नाश अब होगा |

धर्म की विजय होगी-

धर्म का रक्षक अब राज करेगा |'

बोले ॠषि वेदव्यास

राजा धृतराष्ट्र से |

 

-'दे सकता हूं तुम्हे दिव्य दृष्टि

युद्ध देख सको स्वंय नेत्रों से !'

'कुल का हत्याकाण्ड देखना

मेरे वश की बात नहीं-

हां, जिज्ञासा है

सुनने की

-प्रदान करो ॠषिवर

दिव्य दृष्टि संजय को!'

 

'तथास्तु!' कह ज्योति दी

संजय को और बोले,

संजय युद्ध का वृतांत सुनाएंगे,

सब-कुछ ये देख सकेंगे,

सब-कुछ सुन-समझ सकेंगे |

सामने से,

पीछे से

दिन में

रात में,

गुप्त या प्रकट

 

क्रिया रुप में परिणत

या

मन में आई हर बात

-समझ सकेंगे

सुन सकेंगे |

युद्धस्थल में न होकर भी

वहां विधमान रहेंगे

-शस्त्र न कोई छू पाएगा

-कष्ट न कोई हो पाएगा |'

 

-लो अब सारा वृतांत सुनो

गीता का तुम उपदेश सुनो |

अपना लो इसका नियम

कर लो जीवन कर्मयुक्त

कर लो जीवन सरलतम |